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________________ एक को आदि करके उत्तरोत्तर एक अधिक के क्रम से गच्छर (प्रकृत में ६) प्रमाणगत श्रेणि में उनको परस्पर गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसमें दो (२) अंक कम । (सूत्र १३४ आदि) (२) उक्त गाथा में मान के छह भेदों की सूचना की गई है। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार मान के छह भेद ये हैं -मान, उन्मान, अवमान, गणना, प्रतिमान और तत्प्रमाण । वहां सामान्य से मान के जो लौकिक और लोकोत्तर-मान ये दो भेद निर्दिष्ट किये हैं उनमें उपर्युक्त छह भेद लौकिक मान के हैं।' अनुयोगद्वार में प्रमाण को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का कहा गया है। इनमें द्रव्य-प्रमाण के प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न इन दो भेदों में से विभाग निष्पन्न द्रव्यप्रमाण के पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-मान, उन्मान, अवमान, गणिम और प्रतिमान । ये पांच भेद तत्त्वार्थवार्तिक में निर्दिष्ट लौकिक मान के छह भेदों के अन्तर्गत हैं। पर उसका छठा भेद 'तत्प्रमाण' अनुयोगद्वार में नहीं है। यह ज्ञातव्य है कि धवलाकार ने तत्त्वार्थवार्तिक का अनुसरण अनेक प्रसंगों में किया है। इस प्रकार धवला और अनुयोगद्वार में की गई यह मानविषयक प्ररूपणा भी भिन्न परम्परा का अनुसरण करती है। (३) धवला में पूर्वोक्त गाथा के अनुसार अर्थाधिकार के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रमाण, प्रमेय और तदुभय । इनमें से 'जीवस्थान' में एक प्रमेय अधिकार ही कहा गया है, क्योंकि उसमें प्रमेय की ही प्ररूपणा है। ____जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, अनुयोगद्वार में अर्थाधिकार के किन्हीं भेदों का निर्देश न करके इतना मात्र कहा गया है कि जो जिस अध्ययन का अर्थाधिकार है। (४) षट्खण्डागम और अनुयोगद्वार में यथाक्रम से जो पाँच और सात नयों का उल्लेख है वह भिन्न परम्परा का सूचक है। धवला में जो मूल में द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक तथा अर्थनय और व्यंजननय इन दो भेदों के उल्लेखपूर्वक सात नयों का विचार किया गया है उसका आधार तत्त्वार्थसूत्र व उसकी सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिक व्याख्याएँ रही हैं । १. त० वा० ३,३८,२-३ २. त० वा० में ये चार भेद लोकोत्तर मान के कहे गये हैं (३,३८,४)। वहां प्रागे द्रव्यप्रमाण के संख्या और उपमान इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनकी विस्तार से प्ररूपणा की गई है। (३,३८,५-८) ३. अनुयोगद्वार सूत्र ३१३-१६ (आगे इनके भेद-प्रभेदों की जो वहाँ चर्चा की गई है वह भी तत्त्वार्थवार्तिक से भिन्न है)। ४. अनुयोगद्वार, सूत्र ५२६ ५. त० सूत्र १-३३, तत्त्वार्थाधिगमभाष्य सम्मत सूत्रपाठ के अनुसार मूल में नय पांच प्रकार का है--नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द । इनमें देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी के भेद से नैगमनय दो प्रकार का तथा साम्प्रत, समभिरूढ और एवम्भूत के भेद से शब्दनय तीन प्रकार का है। (त० भाष्य १, ३४-३५) २७६/ षट्खण्डागम-परिशी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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