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________________ अनुयोगद्वार में अनुगम के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— सूत्रानुगम और नियुक्त्यनुगम । इनमें नियुक्त्यनुगम निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम, उपघातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्र स्पर्शिक निर्युक्त्यनुगम के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। उनमें निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम को 'अनुगत' कहकर 'उपघातनिर्युक्त्यनुगम इन दो गाथाओं के द्वारा अनुगन्तव्य है' ऐसी सूचना करते हुए दो गाथाओं में उसके २६ भेदों का निर्देश है । तत्पश्चात् सूत्र स्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम की चर्चा की गई है ।' (धवला पु० ६ ) इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में जो अनुगमविषयक चर्चा है उसमें कुछ समानता दृष्टिगोचर नहीं होती । तद्विषयक दोनों ग्रन्थों की वह विवेचन पद्धति भिन्न है । उपसंहार इस प्रकार यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में विषय-विवेचन की दृष्टि से बहुत कुछ समानता देखी जाती है, फिर भी उनमें अपनी-अपनी कुछ विशेषताएँ भी हैं, जो इस प्रकार हैं धवला में जो पूर्वोक्त 'तिविहा य आणुपुब्वी' आदि गाथा उद्धृत की गई है वह अनुयोगद्वार की अपेक्षा भिन्न परम्परा की रही प्रतीत होती है। उसके कारण ये हैं (१) पूर्वनिर्दिष्ट गाथा में आनुपूर्वी के जिन तीन भेदों का निर्देश है उनका उल्लेख धवला में इस प्रकार किया गया है—१. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चादानुपूर्वी और ३. यथातथानुपूर्वी । अनुयोगद्वार में सर्वप्रथम उसके नामानुपूर्वी आदि दस भेदों का निर्देश किया गया है। उन दस भेदों में तीसरा भेद जो द्रव्यानुपूर्वी के ज्ञायकशरीर आदि तीन भेदों में तीसरे भेदभूत शायकशरीर भवियशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-औपनिधिकी और अनोपनिधिकी। इनमें औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के भी तीन भेद प्रकट किये गये हैं - १. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चादानुपूर्वी और ३. अनानुपूर्वी । इनमें पूर्व के दो भेद तो धवला और अनुयोगद्वार दोनों में समान हैं । किन्तु तीसरा भेद धवला में जहाँ यथातथानुपूर्वी निर्दिष्ट है वहाँ अनुयोगद्वार में उसका उल्लेख 'अनानुपूर्वी' के रूप में किया गया है । अनानुपूर्वी का उल्लेख अनुयोगद्वार में प्रसंगानुसार अनेक बार करने पर भी वहाँ 'यथातथानुपूर्वी' का उल्लेख कहीं भी नहीं है। उधर धवला में 'अनानुपूर्वी' का उल्लेख भी जहाँ कहीं हुआ । धवला में यथातथानुपूर्वी के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा है कि अनुलोम और प्रतिलोम क्रम के विना जो जिस किसी भी प्रकार से कथन किया जाता है उसका नाम यथातथानुपूर्वी है। इसके लिए वहाँ एक गाथा के द्वारा शिवादेवी माता के वत्स ( नेमिजिनेन्द्र ) का उदाहरण दिया गया है । यहाँ नेमि जिनेद्र का जयकार न तो ऋषभादि के अनुलोम क्रम से किया गया है और न वर्धमान आदि के प्रतिलोमक्रम से ही । अनुयोगद्वार में प्रकृत अनानुपूर्वी का स्वरूप प्रसंग के अनुसार इस प्रकार कहा गया है १. अनुयोगद्वार, सूत्र ६०१-५ २. सूत्र १३५,१६०,१७२, १७६,२०१ (१), २०२ (१), २०३ (१), २०४ (१), २०५ (१), २०६ (१), २०७ (१) इत्यादि । Jain Education International षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / २७५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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