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________________ १५. तत्त्वार्थसूत्र में औदारिक आदि पांच शरीरों को प्ररूपणा के प्रसंग में प्रदेशों की अपेक्षा उनकी हीनाधिकता, तेजस व कार्मण शरीर की विशेषता, एक जीव के एक साथ सम्भव शरीर, जन्म की अपेक्षा शरीर विशेष की उत्पत्ति तथा आहारक शरीर का स्वरूप व स्वामी; इत्यादि के विषय में अच्छा प्रकाश डाला गया है।' १० ख० में बन्धन अनुयोगद्वार के अन्तर्गत एक 'शरीर-प्ररूपणा' नाम का स्वतंत्र अधिकार है। उसमें नामनिरुक्ति आदि छह अवान्तर अनुयोगद्वारों के आश्रय से शरीरविषयक प्ररूपणा की गई है। पर तत्त्वार्थसूत्र से जिस प्रकार संक्षेप में शरीर के विषय में जानकारी उपलब्ध हो जाती है वैसी सरलता से प० ख० में वह उपलब्ध नहीं होती। वहाँ आग मक पद्धति से उन शरीरों के विषय में प्रदेश व निषेक आदि विषयक प्ररूपणा विस्तार से की ____ तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यभूत सत्त्वार्थवार्तिक में प्रसंग पाकर संज्ञा, स्वलाक्षण्य, स्वकारण, स्वामित्व, सामर्थ्य, प्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, संख्या, प्रदेश, भाव और अल्पबहुत्व आदि अधिकारों में पाँचों शरीरों की परस्पर भिन्नता प्रकट की गई है, जो षट्खण्डागम से कुछ भिन्न है। इस प्रसंग में यहां स्वकारण की अपेक्षा उनमें भिन्नता को प्रकट करते हुए वैक्रियिक शरीर का सद्भाव देव-नारकियों, तेजकायिकों, वायुकायिकों, पंचेन्द्रिय तिर्यचों व मनुष्यों के प्रकट किया गया है। इस प्रसंग में शंकाकार द्वारा यह शंका की गई है कि जीवस्थान में योगमार्गणा के प्रसंग में सात काययोगों के स्वामियों को दिखलाते हुए औदारिक काययोग और औदारिक मिश्रकायंयोग तिर्यच-मनुष्यों के तथा वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग देव-नारकियों के कहा गया है । परन्तु यहाँ उनका सद्भाव तिर्यंच-मनुष्यों के भी कहा जा रहा है, यह आर्ष के विरुद्ध है । इसके उत्तर में वहाँ आगे कहा गया है कि अन्यत्र वैसा उपदेश है। व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों में शरीरभंग के प्रसंग में वायु के औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये चार शरीर कहे गये हैं तथा मनुष्यों में भी उनका सद्भाव प्रकट किया गया है । आगे प्रसंगप्राप्त इस विरोध का परिहार करते हुए कहा गया है कि देव-नारकियों में सदा वैक्रियिक शरीर के देखे जाने से जीवस्थान में उन दो योगों का विधान किया गया है, किन्तु लब्धि के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला वह वैक्रियिक शरीर तिर्यंच-मनुष्यों में सबके और सदाकाल नहीं रहता । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों में उनके कादाचित्क अस्तित्व के देखे जाने से उन तिर्यंच-मनुष्यों में उक्त चार शरीरों का विधान किया गया है, इस प्रकार अभिप्रायभेद होने से दोनों के कथन में कुछ भी विरोध नहीं है।' १६. कर्मादान के कारणभूत कार्मण काययोग का सद्भाव जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में विग्रहगति बतलाया गया है उसी प्रकार षट्खण्डागम में भी उसका सद्भाव विग्रहगति में दिखलाया गया है । विशेष इतना है कि ष०ख० में विग्रहमति के साथ समुद्घातगत केवलियों १. त० सूत्र २, ३६-४६ २. १०ख०, पु० १४, सूत्र २३६-५०१, पृ० ३२१-४३० ३. त० वा० २,४६, ८ पृ० १०८-१० १७२/पट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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