SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में आगे-पीछे प्रायः समान रूप में संसारी और मुक्त जीवों का विचार किया गया है। १२ तवत्तर्थसूत्र में यहाँ प्रसंगप्राप्त इन्द्रियों के विषय में विचार करते हुए सर्वप्रथम इन्द्रियों की पाँच संख्या का निर्देश करके उनके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन दो भेदों का उल्लेख स्वरूपनिर्देशपूर्वक किया गया है । तत्पश्चात् उन पाँच इन्द्रियों के नामनिर्देशपूर्वक उनके विषयक्रम को भी दिखलाया गया है । आगे सूत्रनिर्दिष्ट क्रम (२-१३) के अनुसार यह स्पष्ट कर दिया गया है कि 'वनस्पति' पर्यन्त उन पृथिवी आदि पाँच स्थावरों के एक मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है तथा आगे कृमि-पिपीलिका आदि के क्रम से उत्तरोत्तर एक-एक इन्द्रिय बढ़ती गई है। षट्खण्डागम में पूर्वोक्त सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत इन्द्रिय मार्गणा के प्रसंग में प्रथमत: एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय-इन्द्रियातीतसिद्ध -इनके अस्तित्व को प्रकट किया गया है। आगे उन एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रियादिकों के भेदों का निर्देश करते हुए अन्त में इन्द्रियातीत सिद्धों का भी उल्लेख है।' तत्त्वार्थसूत्र में सामान्य से इन्द्रिय के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन दो भेदों का निर्देश करते हए उनके अवान्तर भेदों को भी प्रकट किया गया है तथा आगे एक व दो आदि इन्द्रियाँ किन जीवों के होती हैं, इसे भी स्पष्ट किया गया है। किन्तु मूल षट्खण्डागम में इसका विचार नहीं किया गया है । धवला में अवश्य प्रसंगप्राप्त उस सबकी प्ररूपणा की गई है। इस प्रसंग में वहाँ यह एक शंका उठायी गई है कि अमुक जीव के इतनी ही इन्द्रियाँ होती हैं, यह कैसे जाना जाता है। इसके समाधान में 'उसका ज्ञान आर्ष से हो जाता है' यह कहते हुए धवलाकार ने इस गाथासूत्र को उपस्थित कर उसके अर्थ को भी स्पष्ट किया है एइंदियस्स फुसणं एक्कं चिय होइ सेसजीवाणं । होति कमवडिढयाई जिब्भा-घाणक्खि-सोत्ताह ।। अनन्तर 'अथवा' कहकर उन्होंने विकल्प के रूप में 'कृमि-पिपीलिका-भ्रमर-मनुष्यादी नामेकैकवृद्धानि' इस सूत्र (तत्त्वार्थसूत्र २-२३) को प्रस्तुत करते हुए उसके भी अर्थ को स्पष्ट किया है। १३. तत्त्वार्थसूत्र में समनस्क जीवों को संज्ञी और अमनस्क जीवों को असंज्ञी प्रकट किया गया है (२-२४) । षट्खण्डागम के पूर्वोक्त सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में संज्ञी मार्गणा के प्रसंग में उन संज्ञी-असंज्ञी जीवों के विषय में विचार किया गया है (सूत्र १,१, १७२-७४)। १४. तत्त्वार्थसूत्र में जो आहारक जीवों का उल्लेख किया गया है (२-३०) वह अनाहार जीवों का सूचक है। __ष० ख० के उस सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में आहार मार्गणा के प्रसंग में आहारक-अनाहारक जीवों के विषय में विचार किया गया है (सूत्र १,१,७५-७७) । १. तत्त्वार्थसूत्र २, १५-२३ २. षट् खण्डागम सूत्र १,१, ३३-३८ (पु० १, पृ० २३१-६४) ३. धवला पु० १, पृ० २३२-४६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | १७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy