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________________ प्रथम अध्याय ३७ विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या गुडखण्डसितामृतैः। स्पर्द्धमाना फलिष्यन्ते भावाः स्वयमितस्ततः॥३७॥ सिता-शर्करा, भावाः-पदार्थाः ॥३७॥ अथ कल्पवृक्षादयोऽपि धर्माधीनवृत्तय इत्युपदिशति धर्मः क्व नालं कर्मीणो यस्य भृत्याः सुरद्रुमाः । चिन्तामणिः कर्मकरः कामधेनुश्च किंकरा ॥३८॥ अलंकर्मीणः-कर्मक्षमः ॥३८॥ बिना किसी वाधाके अपना कार्य करनेमें समर्थ पुण्यके धारी जीवो! अपने कार्यकी सिद्धिके लिए दौड़धूप करनेसे विरत होओ। क्योंकि गुड़, खाण्ड, शक्कर और अमृतसे स्पर्धा करनेवाले पदार्थ आपके प्रयत्नके बिना स्वयं ही इधर-उधरसे आकर प्राप्त होंगे ॥३७॥ विशेषार्थ-बँधनेवाले कर्मोंकी पुण्य प्रकृतियोंमें जो फलदानकी शक्ति पड़ती है उसकी उपमा गुड़, खाण्ड, शक्कर और अमृतसे दी गयी है। अघातिया कर्मोंकी शक्तिके भेद प्रशस्त प्रकृतियोंके तो गुड़ खाण्ड शर्करा और अमृतके समान होते हैं। और अप्रशस्त प्रकृतियोंके नीम, कांजीर, विष और हालाहलके समान होते हैं। जैसे गुड़, खाण्ड, शक्कर और अमृत अधिक-अधिक मीठे होनेसे अधिक सुखके कारण होते हैं। उसी प्रकार पुण्य प्रकृतियोंमें जो अनुभाग पड़ता है वह भी उक्त रूपसे अधिक-अधिक सुखका कारण होता है। इस प्रकारके अनुभागके कारण जीवके परिणाम जैसे विशुद्ध, विशुद्धतर, विशुद्धतम होते हैं तदनुसार ही अनुभाग भी गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतके तुल्य होता है। उसका विपाक होने पर बाह्य वस्तुओंकी प्राप्ति बिना प्रयत्नके ही अनुकूल होती है ॥३७॥ आगे कहते हैं कि कल्पवृक्ष आदि भी धर्म (पुण्य ) के आधीन हैं कल्पवृक्ष जिसके सेवक हैं, चिन्तामणि रत्न पैसेसे खरीदा हुआ दास है और कामधेनु आज्ञाकारी दासी है वह धर्म अभ्युदय और मोक्ष सम्बन्धी किस कार्यको करने में समर्थ नहीं है ? ॥३८॥ विशेषार्थ-कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न और कामधेनु ये तीनों इच्छित वस्तुको देने में प्रसिद्ध हैं। कल्पवृक्ष भोगभूमिमें होते हैं। इनसे माँगने पर भोग-उपभोगकी सामग्री प्राप्त होती है । आचार्य जिनसेनने इन्हें पार्थिव कहाँ है _ "ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पतिकायिक हैं और न देवोंके द्वारा अधिष्ठित हैं। केवल पृथिवीके साररूप हैं।" १. गुडखंडसक्करामियसरिसा सत्था ह णिंबकंजीरा । विसहालाहलसरिसाऽसत्था हु अघादिपडिभागा ॥-गो. क., गा. ८४ । न वनस्पतयोऽप्येते नैव दिव्यैरधिष्ठिताः । केवलं पृथिवीसारास्तन्मयत्वमुपागताः ॥-महापु. ९।४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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