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________________ ३ ६ २२ धर्मामृत (अनगार) अथाभव्यस्याप्रतिपाद्यत्वे हेतुमुपन्यस्यति - बहुशोऽप्युपदेशः स्यान्न मन्दस्यार्थसंविदे | raft पाषाण : केनोपायेन काञ्चनम् ॥ १३॥ मन्दस्य – अशक्यसम्यग्दर्शनादिपाटवस्य सदा मिथ्यात्वरोगितस्य इत्यर्थः । अर्थसंविदे - अर्थे हेय उपादेये च विषये संगता अन्तविधिनियता वित् ज्ञानं तस्मै न स्यात् । तथा चोक्तम्'जले तैलमिवैतिह्यं वृथा तत्र बहिर्द्युति । रसवत्स्यान्न यत्रान्तर्बोधो वेधाय धातुषु ॥' [ सोम. उपास. १८१ श्लो. ] अन्धपाषाण :- अविभाज्यकाञ्चनाश्म । तदुक्तम् अन्धपाषाणकल्पं स्यादभव्यत्वं शरीरिणाम् । यस्माज्जन्मशतेनापि नात्मतत्त्वं पृथग् भवेत् ||१३|| [ ] नहीं करता।' फिर भी ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी परिस्थिति होते हुए भी उपदेशक को निराश न होकर सुननेकी इच्छा नहीं होनेपर भी उस इच्छाको उत्पन्न करके उपदेश करना चाहिए क्योंकि न जाने कब किसकी मति अपने हित में लग जाये । अतः समय प्रतिकूल होते हुए भी सुवक्ता को धर्मका उपदेश करना ही चाहिए । अभव्य को उपदेश न देनेमें युक्ति उपस्थित करते हैं जो मन्द है अर्थात् जिसमें सम्यग्दर्शन आदिको प्रकट कर सकना अशक्य है क्योंकि वह मिध्यात्वरूपी रोगसे स्थायीरूपसे ग्रस्त है दूसरे शब्दों में जो अभव्य है- उसे दो-तीन बाकी तो बात ही क्या, बहुत बार भी उपदेश देनेपर हेय - उपादेय रूप अर्थका बोध नहीं होता । ठीक ही है- क्या किसी भी उपायसे अन्धपाषाण सुवर्ण हो सकता है ? Jain Education International विशेषार्थ - जैसे खानसे एक स्वर्णपाषाण निकलता है और एक अन्धपाषाण निकलता है । जिस पाषाणमें से सोना अलग किया जा सकता है उसे स्वर्णपाषाण कहते हैं और जिसमें से किसी भी रीतिसे सोनेको अलग करना शक्य नहीं है उसे अन्धपाषाण कहते हैं । इसी तरह संसार में भी दो तरह के जीव पाये जाते हैं-- एक भव्य कहे जाते हैं और दूसरे अभव्य कहे जाते हैं। जिनमें सम्यग्दर्शन आदिके प्रकट होनेकी योग्यता होती है उन जीवोंको भव्य कहते हैं और जिनमें उस योग्यताका अभाव होता है उन्हें अभव्य कहते हैं । जैसे एक ही खेतसे पैदा होनेवाले उड़द-मूँगमें से किन्हीं में तो पचनशक्ति होती है, आग आदिका निमित्त मिलने पर वे पक जाते हैं । उनमें कुछ ऐसे भी उड़द मँग होते हैं जिनमें वह शक्ति नहीं होती, वे कभी भी नहीं पकते । इस तरह जैसे उनमें पाक्यशक्ति और अपाक्यशक्ति होती है। वैसे ही जीवों में भी भव्यत्व और अभव्य शक्ति स्वाभाविक होती है। दोनों ही शक्तियाँ अनादि हैं । किन्तु भव्यत्व में भव्यत्व शक्तिकी व्यक्ति सादि है । आशय यह है कि भव्य जीवों में भी अभव्य जीवोंकी तरह मिथ्यादर्शन आदि परिणामरूप अशुद्धि रहती है । किन्तु उनमें सम्यग्दर्शन आदि परिणाम रूप शुद्धि भी सम्भव है । अतः सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्ति के पहले भव्यमें जो अशुद्धि है वह अनादि है । क्योंकि मिथ्यादर्शनकी परम्परा अनादि कालसे उसमें आ रही है । किन्तु सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्तिरूप शक्तिकी व्यक्ति सादि है । अभव्यमें भी अशुद्धता अनादि है क्योंकि उसमें भी मिथ्यादर्शनकी सन्तान अनादि है किन्तु उसका कभी अन्त नहीं आता अतः उसकी अशुद्धता अनादि अनन्त है । दोनोंमें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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