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________________ प्रथम अध्याय २१ ३ प्राग्भारः-व्यूहः । किर्मीरितं-नानारूपतां नीतम् । स्वस्थः-स्वस्मिन् कर्मविविक्ते आत्मनि तिष्ठन् निरातङ्कश्च, निर्वृतः-मुक्तात्मा, आत्यन्तिकीम् -अनन्तकालवतीम् । अरं-झटिति सदुपदेशश्रवणानन्तरमेव । सन्तः-आसन्नभव्याः । प्रतियन्ति–तथेति प्रतिपत्तिगोचरं कुर्वन्ति । तथा चोक्तम्- जेण विआणदि सद्ध(व्वं) पेच्छदि सो तेण सोक्खमणुहवदि। इदि तं जाणदि भविओ अभवियसत्तो ण सद्दहदि ॥ [ पञ्चास्ति० १६३ गा. ] देश्यं-प्रतिपाद्यं तत्त्वम् ।।१२॥ है। ऐसा भी अन्यत्र कहा है। यहाँ बतलाया है कि रति आदिकी उत्पत्तिके जो कारण है वे विभाव शब्दसे, कार्य अनुभाव शब्दसे और सहकारी व्यभिचारी भाव नामसे कहे जाते हैं। रति आदिके कारण दो प्रकारके होते हैं-एक आलम्बन रूप और दूसरे उद्दीपन रूप । स्त्री आदि आलम्बन रूप कारण हैं क्योंकि स्त्रीको देखकर पुरुषके मनमें प्रीति उत्पन्न होती है। इस प्रीतिको उबुद्ध करनेवाले चाँदनी, उद्यान आदि सामग्री उद्दीपन विभाव हैं क्योंकि वे प्रीतिको उद्दीप्त करते हैं । इस प्रकार आलम्बन और उद्दीपन दोनों मिलकर स्थायी भावको व्यक्त करते हैं । ये दोनों रसके बाह्य कारण हैं। रसानुभूतिका मुख्य कारण स्थायीभाव है। स्थायीभाव मनके भीतर रहनेवाला एक संस्कार है जो अनकूल आलम्बन तथा उद्दीपनको पाकर उद्दीप्त होता है । इस स्थायी भावकी अभिव्यक्ति ही रस शब्दसे कही जाती है । इसीसे विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावोंके संयोगसे व्यक्त होनेवाले स्थायी भावको रस कहते हैं। व्यवहारदशामें मनुष्यको जिस जिस प्रकारकी अनुभूति होती है उसको ध्यानमें रखकर प्रायः आठ प्रकारके स्थायी भाव साहित्य शास्त्रमें माने गये है-रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा या घृणा और विस्मय । इनके अतिरिक्त निर्वेदको भी नौवाँ स्थायी भाव माना गया है। इनके अनुसार ही नौ रस माने गये हैं-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त । शान्त रसकी स्थितिके विषयमें मतभेद परत मुनिने अपने नाट्यशास्त्रमें (६-१६) आठ ही रस नाट्यमें बतलाये है। काव्यप्रकाशकारने भी उन्हींका अनुसरण किया है । इसके विपरीत उद्भट, आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्तने स्पष्ट रूपसे शान्त रसका कथन किया है । अस्तु, व्यभिचारी भाव ३३ हैंनिर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सोना, जागना, क्रोध, अवहित्था ( लज्जा आदिके कारण आकार गोपन ), उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क। यद्यपि यहाँ निर्वेदकी गणना व्यभिचारी भावोंमें की गयी है परन्तु यह शान्त रसका स्थायी भाव भी है। जिसका निर्वेद भाव पुष्ट हो जाता है उसका वह रस हो जाता है । जिसका परिपुष्ट नहीं होता उसका भाव ही रहता है। इस प्रकारके भावों और रसोंकी बहुतायतसे यह संसाररूपी नाटक भी विचित्र रूप है। इसका निर्विकल्प अनुभवन करनेवाले मुक्तात्मा आत्मिक सुखमें ही सदा निमग्न रहते हैं, ऐसे उपदेशको सुनकर उसपर तत्काल विश्वास कर लेनेवाले अत्यन्त अल्प हैं । कुन्दकुन्द स्वामीने कहा है-'जीव जिस केवलज्ञान, केवलदर्शनके द्वारा सबको जानता देखता है उसी के द्वारा वह आत्मिक सुख का अनुभव करता है । इस बातको भव्य जीव जानता है, उसकी श्रद्धा करता है किन्तु अभव्य जीव श्रद्धा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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