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________________ अष्टम अध्याय ६११. 'वोसरिदबाहुजुयलो चउरंगुलमंतरेण समपादो। सव्वंगचलणरहिओ काउस्सग्गो विसुद्धो दु॥' [ मूलाचार गा. ६५० ] निषिद्धेत्यादि-खरपरुषादिनामसावद्यस्थापनाद्यनुष्ठानजातातिचारशुद्धिहेतोः । उक्तं च 'आगःशुद्धितपोवृद्धिकर्मनिर्जरणादयः । कायोत्सर्गस्य विज्ञेया हेतवो व्रतवर्तिना॥' इह-आवश्यकप्रकरणे । तनूत्सर्ग:-तनोः कायस्य तात्स्थ्पात्तनुममत्वस्योत्सर्गस्त्यागः। 'ममत्वमेव कायस्थं तात्स्थ्यात् कायोऽभिधीयते । - तस्योत्सर्गस्तनूत्सर्गो जिनबिम्बाकृतेर्यतेः ॥'[ ] स-मोक्षाथित्वादिगणस्य प्रलम्बितभुजायुग्माद्यवस्थानलक्षणः । षोढा-नामादिभेदेन षटप्रकारः । तथाहि-सावद्यनामकरणागतदोषविशुद्धयर्थं कायोत्सर्गो नामकायोत्सर्गः कायोत्सर्गनाममात्र वा। पापस्थापनाद्वारागतदोषोच्छेदाय कायोत्सर्गः स्थापनाकायोत्सर्गः कायोत्सर्गपरिणतप्रतिबिम्बं वा। सावद्यद्रव्यसेवनद्वारेणानागतातीचारनिहरणाय कायोत्सर्गः कायोत्सर्गव्यावर्णनीयप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्तस्तच्छरीरं भाविजीवस्तद्वयतिरिक्तो वा द्रव्यकायोत्सर्गः। सावद्यक्षेत्रद्वारागतदोषध्वसनाय कायोत्सर्गः कायोत्सर्गपरिणतसेवितक्षेत्र वा यक्त होना चाहिए। साथ ही उसमें नैसर्गिक शक्तिके साथ शारीरिक शक्ति भी होना चाहिए। ये सब कायोत्सर्ग करनेवालेके लिए आवश्यक हैं। वह दोनों हाथोंको नीचे लटकाकर इस प्रकार खड़ा होता है कि उसके दोनों पैरोंके मध्यमें चार अंगुलका अन्तर रहे तथा दोनों पैर एक सीधमें हों, आगे पीछे नहीं। यह कायोत्सर्गकी मुद्रा है। इस मुद्रामें खड़े होकर शरीरके प्रति ममत्वके त्यागको कायोत्सर्ग कहते हैं। यह कायोत्सर्गका लक्षण है। यहाँ काय शब्दसे कायका ममत्व लेना चाहिए । उसके उत्सर्ग अर्थात् त्यागको ही कायोत्सर्ग कहते हैं । मूलाचारमें कहा है- 'दोनों भुजाओंको नीचे लटकाकर, चार अंगुलके अन्तरसे दोनों पैरोंको एक सीधमें रखकर, हाथ-पैर, सिर-गरदन, आँख-भौं आदिको निश्चल रखना विशुद्ध कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्गकी इस मुद्रामें स्थित होकर जो शरीरके प्रति ममत्व भाव छोड़ा जाता है वह वस्तुतः कायोत्सर्ग है'। कहा है-'शरीरमें रहनेवाले ममत्वको ही काय कहा है क्योंकि वह मोह शरीरको लेकर होता है। जिनबिम्बके समान मुद्रा धारण करनेवाले साधुके उस ममत्व त्यागको कायोत्सर्ग कहते हैं।' ___वह कायोत्सर्ग दोषोंकी विशुद्धि, तपकी वृद्धि और कर्मोकी निर्जराके लिए किया जाता है, कहा है 1. 'व्रती पुरुषको कायोत्सर्गका प्रयोजन दोषोंकी विशुद्धि, तपकी वृद्धि और कर्मोंकी निर्जरा आदि जानना चाहिए।' कायोत्सर्गके भी छह निक्षेपोंकी अपेक्षा छह भेद हैं-सावद्य नाम करनेसे लगे हुए दोषोंकी विशुद्धिके लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह नामकायोत्सर्ग है। अथवा किसीका नाम कायोत्सर्ग रखना नामकायोत्सर्ग है। पापपूर्ण स्थापनासे लगे हुए दोषोंकी विशुद्धिके लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह स्थापनाकायोत्सर्ग है। अथवा कायोत्सर्गपरिणत प्रतिबिम्ब स्थापनाकायोत्सर्ग है। सावद्य द्रव्यके सेवनसे लगे अतीचारकी विशुद्धिके लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह द्रव्यकायोत्सर्ग है। अथवा कायोत्सर्गका वर्णन करनेवाले शास्त्रका ज्ञाता जो उसमें उपयुक्त नहीं है वह आगम द्रव्यकायोत्सर्ग है। उस ज्ञाताका शरीर, तथा उसके कर्म, नोकर्म और भविष्यमें कायोत्सर्गका होनेवाला ज्ञाता जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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