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________________ - - ६१० धर्मामृत ( अनगार) श्रमातङ्कोपसर्गेषु दुभिक्षे काननेऽपि वा । प्रपालितं न यद्भग्नमनुपालनयाऽमलम् ॥ रागद्वेषद्वयेनान्तर्यद् भवेन्नैव दूषितम् । विज्ञेयं भावशुद्धं तत् प्रत्याख्यानं जिनागमे ॥ [ क्षपणं-क्षप्यतेऽपकृष्यते देहेन्द्रियादिकमशुभकर्म वा अनेनेति क्षपणमिहोपवासादिप्रत्याख्यान६ माख्यायते ॥६९।। अथ सप्तभिः पद्यः कायोत्सर्ग व्याचिख्यासुस्तल्लक्षणप्रयोक्तहेतुविकल्पनिर्णयार्थमिदमादौ निदिशतिमोक्षार्थी जितनिद्रकः सुकरणः सूत्रार्थविद् वीर्यवान् शुद्धात्मा बलवान् प्रलम्बितभुजायुग्मो यदास्तेऽवलम् । ऊर्ध्वज्ञश्चतुरङ्गलान्तरसमानांघ्रिनिषिद्धाभिधा- . द्याचारात्ययशोधनादिह तनूत्सर्गः स बोढा मतः ॥७॥ सुकरणः- शोभना क्रिया परिणामो वाऽस्य । शुद्धात्मा-असंयतसम्यग्दृष्टयादिभव्यः । उक्तं च 'मोक्षार्थी जितनिद्रो हि सूत्रार्थज्ञः शुभक्रियः । बलवीर्ययुतः कायोत्सर्गी भावविशुद्धिभाक् ॥' [ अचलं-निश्चलपादहस्ताधरभ्रूनेत्रादिसर्वाङ्ग :-ऊर्ध्व जानुः । ऊध्वं परलोकं जानानश्च । उक्तं च प्रकार हैं-सिद्ध भक्ति, योगभक्ति, गुरुभक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग करना कृतिकर्म विनय है। दोनों हस्तपुट संयुक्त करके मस्तकसे लगाना, पिच्छिकासे वक्षस्थलका भूषित होना इत्यादि उपचार विनय है। ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनयका स्वरूप पहले कहा गया है । इन पाँच प्रकारकी विनयसे युक्त प्रत्याख्यान विनय शुद्ध होता है । गुरुने प्रत्याख्यानके अक्षरोंका पाठ जैसा किया हो, स्वर व्यंजन आदिसे शुद्ध वैसा ही उच्चारण करना अनुभाषण शुद्ध प्रत्याख्यान है। अचानक किसी रोगका आक्रमण होनेपर, उपसर्ग आनेपर, अत्यन्त श्रमसे थके होनेपर, दुर्भिक्ष होनेपर, विकट वन आदि भयानक प्रदेशमें पहुँचनेपर भी, इन सबमें भी प्रत्याख्यानका पालन करना और उसमें किंचित् भी त्रुटि न होने देना अनुपालन शुद्ध प्रत्याख्यान है। जो प्रत्याख्यान राग द्वेष रूप परिणामोंसे दूषित नहीं है वह भाव विशुद्ध प्रत्याख्यान है। [मूलाचार ७१४२-१४६] इस प्रकार प्रत्याख्यानका स्वरूप कहा ॥६९|| आगे सात श्लोकोंके द्वारा कायोत्सर्गका व्याख्यान करनेके इच्छुक ग्रन्थकार प्रारम्भ में कायोत्सर्गका लक्षण, उसका करनेवाला, प्रयोजन और भेद कहते हैं मुक्तिका इच्छुक, निद्राको जीत लेनेवाला, शुभ क्रिया और परिणामोंसे युक्त, आरसके अर्थका ज्ञाता, वीर्यवान् , बलवान् असंयत सम्यग्दृष्टि आदि भव्य दोनों हाथोंको नीचे लटकाकर, और दोनों चरणोंके मध्य में चार अंगुलका अन्तर देकर तथा उनके अग्रभागोंको बिलकुल सम रूपमें रखते हुए निश्चल खड़ा होता है उसे इस आवश्यक प्रकरणमें कायोत्सर्ग कहते हैं। यह कायोत्सर्ग आगममें निषिद्ध नाम आदिके आचरणसे लगनेवाले दोषोंकी विशुद्धिके लिए किया जाता है । तथा उसके छह भेद हैं ॥७॥ विशेषार्थ-यहाँ कायोत्सर्ग करनेवालेका स्वरूप, कायोत्सर्गका लक्षण, प्रयोजन और भेद कहे हैं । कायोत्सर्ग करनेका पात्र शुद्धात्मा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आदि भव्य जीव ही होता है । वह भी मुमुक्षु निद्राजयी, आगमका अभिप्राय जाननेवाला और अच्छे परिणामसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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