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________________ ६०२ धर्मामृत ( अनगार ) 'कृतकारितानुमननैस्त्रिकालविषयं मनोवचःकायैः । परिहृत्य कर्म सर्वं परमं नैष्कर्म्यमवलम्बे ॥' [ सम. कल. २२५ श्लो.] अपि च 'मोहाद्यदहमकार्ष समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते॥' [ सम. कल. २२६ श्लो.] तथा, न करोमि न कारयामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा च कायेन चेत्यादि आशय यह है कि पहले लगे हुए दोषसे आत्माका निवर्तन करना प्रतिक्रमण है। आगामी दोषोंसे बचनेका नाम प्रत्याख्यान है और वर्तमान दोषसे आत्माका पृथक् होना आलोचना है। व्यवहारमें इनके लिए प्रतिक्रमण दण्डक पाठ, बाह्य वस्तुओंका त्याग और गुरुसे दोषोंका निवेदन आदि किया जाता है जैसा पहले बतलाया है। किन्तु परमार्थसे जिन भावोंके कारण पहले दोष लगे, वर्तमानमें लगते हैं और आगामी कालमें लगेंगे उन भावोंसे आत्माकी निवृत्ति ही प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना है। अतः ऐसा आत्मा स्वयं ही प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और आलोचना है। अर्थात् समस्त कर्म और कर्मफलका त्याग मुमुक्षुको करना चाहिए । इसका खुलासा इस प्रकार है-ज्ञानके सिवाय अन्य भावोंमें ऐसा अनुभव करना कि 'यह मैं हूँ' यह अज्ञान चेतना है। उसके दो भेद हैं-कर्म चेतना और कर्मफल चेतना । ज्ञानके सिवाय अन्य भावोंका कर्ता अपनेको मानना कर्म चेतना है और ज्ञानके सिवाय अन्य भावोंका भोक्ता अपनेको मानना कर्मफल चेतना है । ये दोनों ही चेतना संसारके बीज हैं। क्योंकि संसारके बीज हैं आठ प्रकारके कर्म और उन कर्मोका बीज है अज्ञान चेतना। इसलिए मुमुक्षुको अज्ञान चेतनाके विनाशके लिए सकल कर्म संन्यास भावना और सकल कर्म फल संन्यास भावनाको भाकर स्वभावभूत ज्ञान चेतनाका ही अनुवर्तन करना चाहिए। सबसे प्रथम सकल कर्म संन्यास भावना भाना चाहिए-सकल कर्मों के त्यागके कृत, कारित, अनुमोदना और मन वचन कायको लेकर ४९ भंग होते हैं। यथा-जो मैंने अतीत कालमें कर्म किया, कराया, दूसरे करते हुएका अनुमोदन किया मनसे, वचनसे, कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । जो मैंने किया, कराया, अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे, वचनसे, वह दुष्कृत मिथ्या हो । जो मैंने किया, कराया, अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे, कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। इस प्रकार मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके सात-सात संयोगी भंग होते हैं। दोनोंको परस्परमें मिलानेसे ४९ भंग होते हैं। समयसार कलशमें आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है-'अतीत अनागत वर्तमान काल सम्बन्धी सभी कर्मोको कृत, कारित, अनुमोदना और मन वचन कायसे छोड़कर मैं उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाका अवलम्बन करता हूँ। इस प्रकार ज्ञानी सब कर्मों के त्यागकी प्रतिज्ञा करता है। और भी–मैंने जो मोहके वशीभूत होकर कर्म किये हैं उन समस्त कर्मोका प्रतिक्रमण करके मैं निष्कर्म चैतन्य स्वरूप आत्मामें आत्मासे ही निरन्तर वर्त रहा हूँ ऐसा ज्ञानी अनभव करता है। आशय यह है कि भतकालमें किये गये कर्मको ४९ भंग पर्वक मिथ्या करनेवाला प्रतिक्रमण करके ज्ञानीके ज्ञान स्वरूप आत्मामें लीन होकर निरन्तर चैतन्य स्वरूप आत्माका अनुभव करनेकी यह विधि है। मिथ्या कहनेका मतलब यह है कि जैसे किसीने पहले धन कमाकर जमा किया था। उसने उसके प्रति ममत्व जब छोड़ दिया तब उसे भोगनेका उसका अभिप्राय नहीं रहा। अतः उसका भूतकालमें कमाया हुआ धन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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