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________________ अष्टम अध्याय अथ मुमुक्षोः सकलकर्मसंन्यासभावनाप्रमुखं सकलकर्म फलसंन्यासभावनामभिनयतिप्रतिक्रमणमालोचं प्रत्याख्यानं च कर्मणाम् । भूतसद्भाविनां कृत्वा तत्फलं व्युत्सृजेत् सुधीः ॥ ६४॥ ६०१ प्रतिक्रमणं - भूतकर्मणां पूर्वोपार्जितशुभाशुभकर्मविपाकभवेभ्यो भावेभ्यः स्वात्मानं विनिवर्त्यात्मना तत्कारणभूतप्राक्तनकर्म निवर्तनम् । आलोचनं - सत्कर्मणां वर्तमानशुभाशुभकर्म विपाकानामात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलम्भनम् । प्रत्याख्यानं - भाविकर्मणां शुभाशुभस्वपरिणामनिमित्तोत्तरकर्मनिरोधनं कृत्वा । तथाहि - यदहमकार्ष ६ यदचीकरें यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञास मनसा च वाचा च कायेन च 'तन्मिथ्या मे दुष्कृतं' इत्येवं समस्तव्यस्तैः करण- (-रैकान्नपञ्चाशता - ) क्रियापदैश्चावर्तनीयम् । यथाह - और का स्वरूप पहले कहा है । प्रायश्चित्त आदिके द्वारा आत्माके शोधनको शुद्धि कहते हैं । नीचे गुणस्थानों में ये आठ अमृतकुम्भके तुल्य माने हैं क्योंकि इनके करनेसे दोषोंका परिमार्जन होकर चित्त विशुद्ध होता है । यदि उस स्थिति में इन्हें न किया जाये तो इनका न करना अर्थात् अप्रतिक्रमण आदि विषकुम्भ है क्योंकि दोषोंका परिमार्जन न होनेसे पापका बन्ध होता है । किन्तु अष्टम आदि गुणस्थानों में प्रतिक्रमण आदि भी विषकुम्भ माने जाते हैं क्योंकि शुभोपयोग रूप होनेसे ये पुण्यास्रव के कारण होते हैं और पुण्यबन्ध वैभवका कारण होनेसे मनुष्य की मतिको विकृत करता है । परमात्मप्रकाशमें कहा है- 'पुण्य से वैभव मिलता है । वैभव पाकर मद होता है, मदसे बुद्धि मूढ़ हो जाती है । बुद्धिके मूढ़ होनेसे प्राणी पाप करने लगता है । ऐसा पुण्य हमें नहीं चाहिए ।' अतः ऊपर की भूमिका में आत्मध्यान से ही दोषोंका परिमार्जन हो जाता है ||६३ || आगे मुमुक्षुको समस्त कर्मोंके त्यागकी भावनापूर्वक समस्त कर्मफलके त्यागकी भावना की ओर प्रेरित करते हैं सम्यग्ज्ञानकी भावनामें लीन साधुको भूत, वर्तमान और भावि कर्मोंका प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान करके उनके फलोंका भी त्याग करना चाहिए || ६४ || विशेषार्थ - पूर्वकृत दोषोंकी विशुद्धिके लिए प्रतिक्रमण किया जाता है । वर्तमान दोषोंकी शुद्धिके लिए आलोचना की जाती है और आगामी कालमें लगनेवाले दोषोंसे बचने के लिए प्रत्याख्यान किया जाता है । समयसार में कहा है- 'जो आत्मा पूर्व में उपार्जित शुभ-अशुभ कर्मके उदयसे हुए भावों से अपने को हटाता है अर्थात् तद्रूप नहीं होता वह उन भावोंके कारणभूत पूर्वकृत कर्मोंका प्रतिक्रमण करता है। आगामी कालमें जो शुभ और अशुभ कर्म जिस भाव होनेपर बँधते हैं, उस भावसे जो अपनेको निवृत्त करता है वह प्रत्याख्यान है । वर्तमान में जो शुभ-अशुभ कर्म अपने अनेक प्रकार के विस्तार विशेषको लिये हुए उदयमें आया है उसको जो अपनेसे अत्यन्त भिन्न अनुभव करता है वह आलोचना है । इस प्रकार यह आत्मा नित्य प्रतिक्रमण करता हुआ, नित्य प्रत्याख्यान करता हुआ और नित्य आलोचना करता हुआ, पूर्व उपार्जित कर्मके कार्य और आगामी कालमें बँधनेवाले कर्मों के कारणभूत भावोंसे अत्यन्त निवृत्त होता हुआ, तथा वर्तमान कर्मोदयको अपनेसे अत्यन्त भिन्न जानता हुआ अपने ज्ञानस्वभाव में निरन्तर चरण करनेसे स्वयं चारित्र होता है । १. भ. कु. च. । ७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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