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________________ ९ अष्टम अध्याय अथ प्रतिक्रान्तिक्रियायाः कर्तृकर्मकरणाधिकरणकारकाणि लक्षयति स्यान्नामाविप्रतिक्रान्तिः परिणामनिवर्तनम् । दुर्नामस्थापनाभ्यां च सावद्यद्रव्यसेवनात् ॥५९॥ क्षेत्रकालाश्रितादागाद्याश्रिताच्चातिचारतः। परिणामनिवृत्तिः स्यात् क्षेत्रादीनां प्रतिक्रमः॥६॥ स्यात् प्रतिक्रमकः साधुः प्रतिक्रम्यं तु दुष्कृतम् । येन यत्र च तच्छेवस्तत्प्रतिक्रमणं मतम् ॥६॥ प्रतिक्रमकः-प्रतिक्रमति प्रतिगच्छति द्रव्यादिविषयादतिचारान्निवर्तते दोषनिहरणे वा प्रवर्तत इति प्रतिक्रमकः । पञ्चमहाव्रतादिश्रवणधारणदोषनिहरणतत्पर इत्यर्थः । प्रतिकृम्यं परित्याज्यम् । दुष्कृतं- मिथ्यात्वाद्यतिचाररूपं पापं तन्निमित्तद्रव्यादिकं वा । येन-मिथ्यादुष्कृताभिधानाभिव्यक्तपरिणामेनाक्षरकदम्बकेन वा । यत्र-यस्मिन् व्रतशुद्धिपूर्वकव्रतस्वरूपे व्रतशुद्धिपरिणते वा जीवे । उक्तं चशेष दो का अन्तर्भाव दैवसिक प्रतिक्रमगमें होता है। इस तरह लघु प्रतिक्रमण भी सात होते हैं । कहा है-केशलोंच, रात्रि, दिन, भोजन, निषिद्धिकागमन, मार्ग और दोषको लेकर सात लघु प्रतिक्रमण होते हैं। प्रतिक्रमणमें दोषोंके अनुसार भक्तिपाठ, कायोत्सर्ग आदि किया जाता है। जिन दोषोंकी विशुद्धिके लिए ये अधिक किये जाते हैं उनके प्रतिक्रमणको गुरु कहते हैं और जिनकी विशुद्धि के लिए ये कम किये जाते हैं उन्हें लघु कहते हैं ॥५८॥ __आगे दो श्लोकोंके द्वारा नाम आदि छह प्रतिक्रमणोंको कहते हैं नाम प्रतिक्रमण, स्थापना प्रतिक्रमण, द्रव्य प्रतिक्रमण, क्षेत्र प्रतिक्रमण, काल प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण ये छह प्रतिक्रमण हैं । जो नाम पापके कारण हैं उनके उच्चारण आदिसे परिणामोकी निवृत्तिको नाम प्रतिक्रमण कहते है। सरागी देवोंकी स्थापनामलक परिणामोसे निवृतिको स्थापना प्रतिक्रमण कहते हैं। जो भोज्य आदि वस्तु हिंसा आदि पापसे युक्त है उसके सेवनसे परिणामोंकी निवृत्तिको द्रव्य प्रतिक्रमण कहते हैं। क्षेत्र सम्बन्धी दोषोंसे परिणामोंकी निवृत्तिको क्षेत्र प्रतिक्रमण कहते हैं। काल सम्बन्धी दोषोंसे परिणामोंकी निवृत्तिको काल प्रतिक्रमण कहते हैं। और राग-द्वेष-मोह सम्बन्धी परिणामोंकी निवृत्तिको भाव प्रतिक्रमण कहते हैं ॥५९-६०॥ आगे प्रतिक्रमणरूप क्रियाके कर्ता, कर्म, करण और अधिकरण कारक बताते हैं पाँच महाव्रत आदिके श्रवण और धारणमें लगनेवाले दोषोंको दूर करने में तत्पर साधु प्रतिक्रमणका कर्ता होता है। मिथ्यात्व आदि दोषरूप पाप अथवा उसमें निमित्त द्रव्यादि, जो कि छोड़ने योग्य होते हैं वे प्रतिक्रमणरूप क्रियाके कर्म हैं। 'मेरे समस्त पाप मिथ्या होवे' इस प्रकारके शब्दोंसे प्रकट होनेवाले जिस परिणामसे अथवा प्रतिक्रमण पाठके जन अक्षरसमूहसे पापोंका छेद होता है वे करण हैं। और जिस व्रतशुद्धि पूर्वकरूपमें अथवा व्रत शुद्धिरूप परिणत जीवमें दोषोंका छेद होता है वे प्रतिक्रमणके अधिकरण हैं ॥६१।। १. -कत्वरूपे भ. क. च. । २. 'लुञ्चे रात्री दिने भुक्ते निषेधिकागमने पथि । स्यात् प्रतिक्रमणा लघ्वी तथा दोषे तु सप्तमी ॥'[ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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