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________________ धर्मामृत (अनगार ) स इत्यादि । सः - प्रतिक्रमः । अन्त्ये - उत्तमार्थे । गुरुत्वात् - भक्त्युच्छ्वासदण्डकपाटबहुत्वात् । सर्वातिचाराः - दीक्षाग्रहणात् प्रभृति संन्यासग्रहणं यावत् कृता दोषाः । दीक्षा-व्रतादानम् । सर्वातिचार३ प्रतिक्रमणा व्रतारोपणप्रतिक्रमणा चोत्तमार्थप्रतिक्रमणायां गुरुत्वादन्तर्भवत इत्यर्थः । एतेन बृहत्प्रतिक्रमणाः सप्त युरित्युक्तं स्यात् । ताश्च यथा - व्रतारोपणो पाक्षिकी कार्तिकान्तचातुर्मासी फाल्गुनान्तचातुर्मासी आषाढान्तसांवत्सरी सावतिचारी उत्तमार्थी चेति । आतिचोरी त्रिविधाहारव्युत्सर्जनी तां वीतयो ( ? ) ६ रेवान्तर्भवतः । तथा पञ्चसंवत्सरान्ते विधेया योगान्ती प्रतिक्रमणा सांवत्सरप्रतिक्रमणायामन्तर्भवति । उक्तं च ५९६ 'ब्रतादाने च पक्षान्ते कार्तिके फाल्गुने शुचौ । स्यात् प्रतिक्रमणा गुर्वी दोषे संन्यासने मृते ॥' [ ] अपर इत्यादि । अपरे - अन्यत्र आह्निकादी प्रतिक्रमणे । निषिद्धिकेर्या -- निषेधिका (गिषिद्धिका ) - गमनम् । लुञ्चो—दीक्षाग्रहणोत्तरकालं द्वित्रिचतुर्मास विधेयं हस्तेन केशोत्पाटनम् । आशः - भोजनम् । दोषः - १२ दुस्वप्नाद्यतीचारः । निषिद्धकेर्या च लुञ्चश्चाशश्च दोषश्च । ते चत्वारोऽर्था निमित्तानि यस्य स तथोक्तः । इदमत्र तात्पर्यं निषिद्धिकागमनप्रतिक्रमणा लुञ्चप्रतिक्रमणा चेत्यर्थः ॥ ५८॥ विशेषार्थ - दीक्षा लेने के समय से लेकर संन्यास ग्रहण करनेके समय तक जो दोष होते हैं उन सबकी विशुद्धिके लिए किये जानेवाले प्रतिक्रमणको सर्वातीचार प्रतिक्रमण कहते हैं । व्रत ग्रहण करने में लगे हुए दोषों की विशुद्धिके लिए किये जानेवाले प्रतिक्रमणको व्रतारोपण प्रतिक्रमण कहते हैं। ये दोनों ही प्रतिक्रमण गुरु हैं, प्रतिक्रमणके लिए जो भक्ति आदि करनी होती है वह इनमें अधिक करनी होती है । अतः इन दोनोंका अन्तर्भाव उत्तमार्थ प्रतिक्रमण होता है । अतः बृहत् प्रतिक्रमण सात होते हैं, यह निष्कर्ष निकलता है । वे इस प्रकार हैं- व्रतारोपण, पाक्षिक, कार्तिकान्त चातुर्मासिक, फाल्गुनान्त चातुर्मासिक, आषाढान्त वार्षिक, सर्वातीचार सम्बन्धी और उत्तमार्थ । अतिचार सम्बन्धी प्रतिक्रमणका अन्तर्भाव सर्वातीचार सम्बन्धी प्रतिक्रमणमें होता है । और जिसमें तीन प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है उसका अन्तर्भाव उत्तमार्थ प्रतिक्रमणमें होता है। तथा पाँच वर्षके अन्तमें किये जाने वाले युगान्त प्रतिक्रमणका अन्तर्भाव वार्षिक प्रतिक्रमणमें होता है । इस तरह बृहत् प्रतिक्रमण सात हैं । कहा है- ' व्रत ग्रहण करनेपर, पक्षके अन्तमें, कार्तिक मास, फाल्गुन मास और आषाढ़ मासके अन्त में, दोष लगनेपर तथा समाधिपूर्वक मरणमें गुरु प्रतिक्रमण होता है' ॥५८॥ निषिद्धिकामें गमन करनेको निषिद्धिकागमन कहते हैं । दीक्षा ग्रहण करनेके बांद दो मास, तीन मास, या चार मास बीतने पर जो हाथसे केश उखाड़े जाते हैं उसे लोच कहते हैं। भोजनको अशन या गोचर कहते हैं । दुःस्वप्न आदि अतीचारको दोष कहते हैं I इन चारोंको लेकर भी प्रतिक्रमण किया जाता है । अतः उन्हें निषिद्धिकागमन प्रतिक्रमण, लुंच प्रतिक्रमण, गोचार प्रतिक्रमण और अतीचार प्रतिक्रमण कहते हैं। ये चारों प्रतिक्रमण लघु होने से इनका अन्तर्भाव ईर्यापथ आदि प्रतिक्रमणों में होता है । उनमें से प्रथमका अन्तर्भाव ऐर्यापर्थिक प्रतिक्रमणमें और अन्तिमका अन्तर्भाव रात्रि प्रतिक्रमणमें तथा १. - रो सार्वातिचार्यां त्रि-भ. कु. च. । २. नी चोत्तमाय प्रतिक्रमणायामन्तभ. कु. व. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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