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________________ धर्मामृत ( अनगार ) श्रेयोमार्गः-मुक्तिपथः प्रशस्तमार्गश्च । जाज्वलन्-देदीप्यमानः । दावः-दवाग्निः । चक्रम्यमाणान्–कुटिलं कामतः । दुःखदावाग्निमुखं गच्छत इति भावः । उद्धरेयम्-तादग्भवगहननिस्सरणो३ पायोपदेशेन उपकुर्याम्यहम् । अहें सप्तमी । सैषा तीर्थकरत्वभावना । तथा चोक्तमार्षे गर्भान्वयक्रियाप्रक्रमे ___ 'मौनाध्ययनवृत्तत्वं तीर्थकृत्त्वस्य भावना। गरुस्थानाभ्यपगमो गणोपग्रहणं तथा ॥ इति ।[ महाप. ३८.५८ ] आरोहदित्यादि । आरोहन् क्षणे क्षणे वर्धमानः, परेषामनुग्राह्य देहिनामनुग्रहः उपकारस्तस्य रसप्रकर्षस्तद्धवहषों वा, तेन विलसन्त्यो विशेषेणानन्यसामान्यतया द्योतमाना भावनाः परमतीर्थकरत्वाख्यनाम कारणभूताः षोडशदर्शनविशुद्धयादिनमस्कारसंस्काराः ताभिरुपात्तमुपाजितं पुण्यं तीथंकरत्वाख्यः सुकृतविशेषः ९ तेन केवलज्ञानसन्निधानलब्धोदयेन प्रक्रान्तः प्रारब्धैः, तत्प्रक्रान्तैरेव न विवक्षादिजनितैः, वीतरागे भगवति तद्विरोधात् । तथा चोक्तम् यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयं, १२ नो वाञ्छाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम् । शान्तामर्षविषैः समं पशुगणैराकणितं कणिभिः, तन्नः सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्वं वचः ॥ [ समवसरणस्तोत्र ३० ] इति । संसारके बन्धनसे छूटकर जीव जो स्वरूप लाभ करता है उसीको श्रेय या मोक्ष कहते हैं। उसका माग या प्राप्तिका उपाय व्यवहारनयसे तो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र है किन्तु निश्चयनयसे रत्नत्रयमय स्वात्मा ही मोक्षका मार्ग है। इससे या तो वे बिलकुल ही अनजान हैं या निःसंशय रूपसे नहीं जानते अथवा व्यवहार और निश्चय रूपसे पूरी तरह नहीं जानते। उन्हें देखकर जिनके मनमें यह भावना उठती है कि नाना प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित इन तीनों लोकोंके प्राणियोंका में उद्धार करूँ, उन्हें इन दुःखोंसे छूटनेका उपाय बतलाऊँ । यह भावना ही मुख्यरूपसे अपायविचय नामक धर्मध्यानरूप तीर्थकर भावना है । महापुराणमें गर्भान्वय क्रियाके वर्णनमें तीर्थंकर भावनाका उल्लेख है। ___ "मैं एक साथ तीनों लोकोंका उपकार करनेमें समर्थ बनू" इस प्रकारकी परम करुणासे अनरंजित अन्तश्चैतन्य परिणाम प्रतिसमय वर्धमान होनेसे परोपकारका जब आधिक्य होता है उससे दर्शनविशुद्धि आदि १६ भावनाएँ होती हैं जो परमपुण्य तीर्थकर नामकर्मके बन्धमें कारण होती हैं। ये भावनाएँ सभीके नहीं होतीं, इनका होना दुर्लभ है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेके पश्चात् केवलज्ञानकी प्राप्ति होनेपर बिना इच्छाके भगवान् अहंन्तकी वाणी खिरती है। चूंकि वे वीतराग होते हैं अतः वहाँ विवक्षा-बोलनेकी इच्छा नहीं होती। कहा भी है-'जो समस्त प्राणियोंके लिए हितकर है, वर्णसहित नहीं है, जिसके बोलते समय दोनों ओष्ठ नहीं चलते, जो इच्छा पूर्वक नहीं हैं, न दोषोंसे मलिन हैं, जिनका क्रम इवाससे रुद्ध नहीं होता, जिन वचनोंको पारस्परिक वैर भाव त्यागकर प्रशान्त पश गणोंके साथ सभी श्रोता सुनते हैं, समस्त विपत्तियोंको नष्ट कर देनेवाले सर्वज्ञ देवके अपूर्व वचन हमारी रक्षा करें।' आचार्य जिनसेन स्वामीने अपने महापुराण (२३।६९-७३ ) में लिखा है कि भगवान्के मुखरूपी कमलसे मेघोंकी गर्जनाका अनुकरण करनेवाली दिव्यध्वनि निकल रही थी। यद्यपि वह एक प्रकार की थी तथापि सर्वभाषारूप परिणमन करती थी। १. समवसरण स्तोत्र ३०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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