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________________ प्रथम अध्याय ३ अर्थवं तदगणग्रामस्य सहसा प्राप्त्यार्थितया प्रथमं सिद्धानाराध्य इदानों तदुपायोपदेशकज्येष्ठतया निजगज्ज्येष्ठतया त्रिजगज्ज्येष्ठमर्हद्भट्टारकमखिलजगदेकशरणं प्रपत्तुमनाः 'श्रेयोमार्गानभिज्ञान्' इत्याद्याह श्रेयोमर्गानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वलदुःखदावस्कन्धे चक्रम्यमाणानतिचकितमिमानुद्धरेयं वराकान् । इत्यारोहत्परानुग्रहरसविलसद्भावनोपात्तपुण्य प्रक्रान्तैरेव वाक्यैः शिवपथमुचितान् शास्ति योऽहंन् स नोऽव्यात् ॥२॥ ___ 'इष्ट फलकी सिद्धिका उपाय सम्यग्ज्ञानसे प्राप्त होता है, सम्यग्ज्ञान शास्त्रसे प्राप्त होता है, शास्त्रकी उत्पत्ति आप्तसे होती है इसलिए आप्तके प्रसादसे प्रबुद्ध हुए लोगोंके द्वारा आप्त पूज्य होता है क्योंकि साधुजन किये हुए उपकारको भूलते नहीं हैं।' इसके सिवाय, शीघ्र मोक्षके इच्छुकको परमार्थसे मुक्तात्माओंकी ही भक्ति करनी चाहिए, यह उपदेश देनेके लिए ग्रन्थकारने प्रथम सिद्धोंकी आराधना की है। कहा भी है संयम और तपसे संयुक्त होनेपर भी जिसकी बुद्धिका रुझान नवपदार्थ और तीर्थंकर की ओर हो तथा जो सूत्रोंमें रुचि रखता है उसका निर्वाण बहुत दूर है। इसलिए मोक्षार्थी जीव परिग्रह और ममत्वको छोड़कर सिद्धोंमें भक्ति करता है उससे वह निर्वाणको प्राप्त करता है। अर्थात् शुद्ध आत्मद्रव्यमें विश्रान्ति ही परमार्थसे सिद्धभक्ति है उसीसे निर्वाणपद प्राप्त होता है। इस प्रकार सिद्धोंके गुणोंकी प्राप्ति का इच्छुक होनेसे प्रथम सिद्धोंकी आराधना करके ग्रन्थकार आगे उसके उपायोंका उपदेश करनेवालोंमें ज्येष्ठ होनेसे तीनों लोकोंमें ज्येष्ठ, समस्त जगत्के एक मात्र शरणभूत अहन्त भट्टारककी शरण प्राप्त करनेकी भावनासे उनका स्मरण करते हैं -इस भवरूपी भीषण वनोंमें दुःखरूपी दावानल बड़े जोरसे जल रही है और श्रेयोमार्गसे अनजान ये बेचारे प्राणी अत्यन्त भयभीत होकर इधर-उधर भटक रहे हैं। मैं इनका उद्धार करूँ इस बढ़ते हुए परोपकारके रससे विशेषरूपसे शोभित भावनासे संचित पुण्यसे उत्पन्न हुए वचनोंके द्वारा जो उसके योग्य प्राणियोंको मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं वे अर्हन्तजिन हमारी रक्षा करें ॥२॥ विशेषार्थ-जिसमें जीव चार गतियोंमें भ्रमण करते रहते हैं तथा प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप वृत्तिका आलम्बन करते हैं उसे भव या संसार कहते हैं। यह भव जो हमारे सम्मुख विद्यमान है नाना दुःखोंका कारण होनेसे भीषण वनके तुल्य है। इसमें होने वाले शारीरिक मानसिक आगन्तुक तथा सहज दुःख दावानलके समान हैं। जैसे वनमें लगी आग वनके प्राणियोंको शारीरिक और मानसिक कष्टके साथ अन्तमें उनका विनाश ही कर देती है वैसे ही ये संसारके दुःख भी अन्तमें विनाशक ही होते हैं। यह दुःख ज्वाला बड़ी तेजीसे रह-रहकर प्रज्वलित होती है इससे भयभीत होकर भी बेचारे प्राणी इधर-उधर भटकते हुए उसीकी ओर चले जाते हैं क्योंकि उन्हें श्रेयोमार्गका ज्ञान नहीं है। श्रेय है मोक्ष, १. सपयत्थं तित्थयरं अधिगतबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स । दूरतरं णिब्वाणं संजमतवसंपओत्तस्स ॥ तम्हा णिन्वुदिकामो णिस्संगो जिम्ममो य भविय पुणो । सिद्धेसु कुणदि भत्ती णिव्वाणं तेण पप्पोदी ॥ -पञ्चास्तिकाय १७०-१६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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