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________________ सप्तम अध्याय ५३९ ग्रहः-अभिनिवेशः । आत्मस्थाम-स्ववीर्यम् । अरिजयिनां-मोहजेतृणाम् ॥१०॥ अथ पञ्चनमस्कारस्य परममङ्गलत्वमुपपाद्य तज्जपस्योत्कृष्टस्वाध्यायरूपतां निरूपयति मलमखिलमुपास्त्या गालयत्यङ्गिनां य च्छिवफलमपि मङ्गलाति यत्तत्पराय॑म् । परमपुरुषमन्त्रो मङ्गलं मङ्गलानां श्रुतपठनतपस्यानुत्तरा तज्जपः स्यात् ॥११॥ अखिलं-उपात्तमपूर्व च । उपास्त्यो -वाङ्मनसजपकरणलक्षणाराधनेन । मङ्गं-पुण्यम् । उक्तं च 'मलं पापमिति प्रोक्तमुपचारसमाश्रयात् । तद्धि गालयतीत्युक्तं मङ्गलं पण्डितैर्जनैः ।।' तथा 'मङ्गशब्दोऽयमुद्दिष्टः पुण्यार्थस्याभिधायकः । तल्लातीत्युच्यते सद्भिर्मङ्गलं मङ्गलाथिभिः ॥' [ ] वह ज्ञानी अपनी अनिर्वचनीय आत्मशक्तिको प्रकट करता है जिससे वह मोहको जीतनेवालोंकी अग्रपंक्तिको पाता है ॥१०॥ विशेषार्थ-भगवान् अर्हन्त देवके अनुपम गुणोंका स्तवन भी स्वाध्याय ही है। जो मन-वचन-कायको एकाग्र करके स्तवन करता है वह एक तरहसे अपनी आत्मशक्तिको ही प्रकट करता है। कारण यह है कि स्तवन करनेवालेका मन तो भगवान्के गुणोंमें आसक्त रहता है क्योंकि वह जानता है कि शद्ध ज्ञानघनस्वरूप परमात्माके ये ही गण है। उसके वचन स्तोत्र पाठमें संलग्न रहते हैं। जिसमें नयी-नयी बातें आती हैं। स्तोत्र पढ़ते हुए पाठक विनम्रताकी मूर्ति होता है । इस तरह अपने मन-वचन-कायसे वह भगवान्का गुणानुवाद करते हुए उनके प्रति अपनी असीम श्रद्धा व्यक्त करके अपनेको तन्मय करता है । यह तन्मयता ही उसे मोह विजयी बनाती है क्योंकि शुद्धात्मा के गुणोंमें जो अनुराग होता है वह सांसारिक रागद्वेषका उन्मूलक होता है ।।९०॥ आगे पंचनमस्कार मन्त्रको परममंगल और उसके जपको उत्कृष्ट स्वाध्याय बतलाते हैं पैंतीस अक्षरोंके पंचनमस्कार मन्त्रकी वाचनिक या मानसिक जप करने रूप उपासनासे प्राणियोंका पूर्वबद्ध तथा आगामी समस्त पाप नष्ट होता है तथा अभ्युदय और कल्याणको करनेवाले पुण्यको लाता है इसलिए यह मंगलोंमें उत्कृष्ट मंगल है। तथा उसका जप उत्कृष्ट स्वाध्यायरूप तप है ॥९१॥ विशेषार्थ-मंगल शब्दकी निरुक्ति धवलाके प्रारम्भमें इस प्रकार की है-'मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयतीति मङ्गलम् ॥' [ पु. १, पृ. ३२ ] जो मलका गालन करता है, विनाश करता है, जलाता है, घात करता है, शोधन करता है या विध्वंस करता है उसे मंगल कहते हैं। कहा है-उपचारसे पापको भी मल कहा है। उसका गालन करता है इसलिए पण्डितजन उसे मंगल कहते हैं। दूसरी व्युत्पत्तिके अनुसार मंग शब्दका अर्थ सुख है, उसे जो लावे वह मंगल है। कहा है-यह मंग शब्द पुण्यरूप अर्थका कथन करता है, उसे लाता है इसलिए मंगलके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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