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________________ ५३८ धर्मामृत ( अनगार) __ संज्ञाः-आहाराद्यभिलाषाः । सदध्यवसिताः-प्रशस्ताध्यवसायाः। शासनोद्भासिनः-जिनमतप्रभावकाः ॥८९॥ अथ स्तुतिलक्षणस्वाध्यायफलमाह शुद्धज्ञानघनार्हदद्भतगुणग्रामग्रहव्यग्रधी स्तद्वयक्त्युदधुरनूतनोक्तिमधुरस्तोत्रस्फुटोद्गारगीः । मूति प्रश्रयनिर्मितामिव दधत्तत्किचिदुन्मुद्रय त्यात्मस्थाम कृती यतोरिजयिनां प्राप्नोति रेखां धुरि ॥१०॥ छेदन होता है, क्रोधादि कषायोंका भेदन होता है। दिनोदिन तपमें वृद्धि होती है। संवेग भाव बढ़ता है। परिणाम प्रशस्त होते हैं । समस्त अतीचार दूर होते हैं, अन्यवादियोंका भय नहीं रहता, तथा जिनशासनकी प्रभावना करने में मुमुक्षु समर्थ होता है ॥८॥ विशेषार्थ-समस्त जिनागम चार अनुयोगोंमें विभाजित है-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। जिसमें त्रेसठ शलाका पुरुषोंका चरित वर्णित है तथा धार्मिक कथाएँ हैं वे सब ग्रन्थ प्रथमानुयोगमें आते हैं। ऐसे ग्रन्थोंका स्वाध्याय करनेसे पुरातन इतिवृत्तका ज्ञान होनेके साथ पुण्य और पापके फलका स्पष्ट बोध होता है। उससे स्वाध्याय करनेवालेका मन पापसे हटकर पुण्यकार्यों में लगता है। साथ ही पुण्यमें आसक्तिका भी बुरा फल देखकर पापकी तरह पुण्यको भी हेय मानकर संसारसे विरक्त होकर आत्मसाधनामें लगता है। जो प्रथम स्वाध्यायमें प्रवृत्त होते हैं उनके लिए कथा प्रधान ग्रन्थ बहुत उपयोगी होते हैं, उनमें उनका मन लगता है इससे ही इसे प्रथम अनुयोग कहा है। करण परिणामको कहते हैं और करण गणितके सूत्रोंको भी कहते हैं। अतः जिन ग्रन्थोंमें लोकरचनाका, मध्यलोकमें होनेवाले कालके परिवर्तनका, चारों गतियोंका तथा जीवके परिणामोंके आधारपर स्थापित गुणस्थानों, मार्गणास्थानों आदिका कथन होता है उन्हें करणानुयोग कहते हैं। करणानुयोगके आधारपर ही विपाकविचय और संस्थानविचय नामक धर्मध्यान होते हैं। और गुणस्थानोंके बोधसे जीव अपने परिणामोंको सुधारनेका प्रयत्न करता है। जिन ग्रन्थोंमें श्रावक और मुनिके आचारका वर्णन होता है उन्हें चरणानुयोग कहते हैं। मोक्षकी प्राप्तिमें चारित्रका तो प्रमुख स्थान है अतः मुमुक्षुको चारित्र प्रतिपादक ग्रन्थोंका तो स्वाध्याय करना ही चाहिए। .उसके बिना चारित्रकी रक्षा और वृद्धि सम्भव नहीं है । तथा जीवाजीवादि सात तत्त्वोंका, नव पदार्थोंका, षट् द्रव्योंका जिसमें वर्णन हो उसे द्रव्यानुयोग कहते है। उसकी स्वाध्यायसे तत्त्वोंका सम्यग्ज्ञान होकर आत्मतत्त्वकी यथार्थ प्रतीति होती है । इसके साथ ही स्वाध्यायसे बुद्धि तीक्ष्ण होती है, इन्द्रिय-मन आदिको वशमें करनेका बल मिलता है। दर्शन शास्त्रका अध्ययन करनेसे किसी अन्य मतावलम्बीसे भय नहीं रहता । आजके युगमें स्वाध्यायसे बढ़कर दूसरा तप नहीं है । अतः स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए ॥८॥ आगे स्तुतिरूप स्वाध्यायका फल कहते हैं स्तुतिरूप स्वाध्यायमें प्रवृत्त मुमुक्षुकी मनोवृत्ति निर्मल ज्ञानघनस्वरूप अर्हन्त भगवान्के गुणों के समूहमें आग्रही होनेके कारण आसक्त रहती है। उसकी वचनप्रवृत्ति भगवान्के गुणोंकी व्यक्तिसे भरे हुए और नयी-नयी उक्तियोंसे मधुर स्तोत्रोंके प्रकट उल्लासको लिये हुए होती है । तथा उसकी शरीरयष्टि ऐसी होती है मानो वह विनयसे ही बनी है। इस तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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