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________________ सप्तम अध्याय अथ तपःसंज्ञं प्रायश्चित्तं दर्शयति कृतापराधः श्रमणः सत्त्वादिगुणभूषणः। यत्करोत्युपवासादिविधि तत्क्षालनं तपः॥५२॥ उपवासादि-आदिशब्दादेकस्थानाचाम्लनिविकृत्यादिपरिग्रहः । क्षालनं-प्रायश्चित्तम ॥५२॥ अथालोचनादिप्रायश्चित्तविधेविषयमाह भय-स्वरा-शक्त्यबोध-विस्मृतिव्यसनादिजे । महाव्रतातिचारेऽमुषोढा शुद्धि विधि चरेत् ॥१३॥ भयत्वरा-भीत्या पलायनम् । अमुं-आलोचनादिलक्षणम् । शुद्धिविधि-शास्त्रोक्तप्रायश्चित्तम् ॥५३॥ ममत्व त्यागकर अन्तर्मुहूर्त या एक दिन या एक पक्ष या मास आदि तक खड़े रहना व्युत्सर्ग तप है। किन्हींका कहना है कि नियत काल तक मन-वचन-कायको त्यागना व्युत्सर्ग है ॥५१॥ आगे तप प्रायश्चित्तको कहते हैं शास्त्रविहित आचरणमें दोष लगानेवाला किन्तु सत्त्व धैर्य आदि गुणोंसे भूषित श्रमण जो प्रायश्चित्त शास्त्रोक्त उपवास आदि करता है वह तप प्रायश्चित है ॥५२॥ आगे बतलाते हैं कि ये आलोचनादि प्रायश्चित्त किस अपराधमें किये जाते हैं डरकर भागना, असामर्थ्य, अज्ञान, विस्मरण, आतंक और रोग आदिके कारण महाव्रतोंमें अतीचार लगनेपर आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग और तप ये छह शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त करना चाहिए ।।५३।। विशेषार्थ-यहाँ कुछ दोषोंका प्रायश्चित्त शास्त्रानुसार लिखा जाता है-आचार्यसे पूछे विना आतापन आदि करनेपर, दूसरेके परोक्षमें उसके पुस्तक-पीछी आदि उपकरण ले लेनेपर, प्रमादसे आचार्य आदिका कहा न करनेपर, संघके स्वामीसे पूछे बिना उसके कामसे कहीं जाकर लौट आनेपर, दूसरे संघसे पूछे विना अपने संघमें जानेपर, देश और कालके नियमसे यअवश् कर्तव्य विशेष व्रतका धर्मकथा आदिके व्यासंगसे भूल जानेपर किन्तु पुनः उसको कर लेनेपर, इसी प्रकारके अन्य भी अपराधोंमें आलोचना मात्र ही प्रायश्चित्त है। छह इन्द्रियों और वचन आदिको लेकर खोटे परिणाम होनेपर, आचार्य आदिसे हाथ-पैर आदिका धक्का लग जानेपर, व्रत, समिति और गुप्तिका पालन कम होनेपर, चुगुली, कलह आदि करनेपर, वैयावृत्य स्वाध्याय आदिमें प्रमाद करनेपर, गोचरीके लिए जानेपर यदि लिंगमें विकार उत्पन्न हो जाये तथा संक्लेशके अन्य कारण उपस्थित होनेपर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। यह प्रतिक्रमण दिन और रात्रिके अन्त में और भोजन, गमन आदिमें किया जाता है यह प्रसिद्ध है । केशलोंच, नखोंका छेदन, स्वप्नमें इन्द्रिय सम्बन्धी अतिचार या रात्रिभोजन करनेपर तथा पाक्षिक, मासिक और वार्षिक दोष आदिमें आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं। मौन आदिके बिना आलोचना करनेपर, पेटसे कीड़े निकलनेपर, हिम, डाँस, मच्छर आदि तथा महावायुसे संघर्ष में दोष लगनेपर, चिकनी भूमि, हरे तृण और कीचड़के ऊपरसे जानेपर, जंघा प्रमाण जलमें प्रवेश करनेपर, अन्यके निमित्तसे रखी वस्तुका अपने लिए उपयोग कर लेनेपर, नावसे नदी पार करनेपर, पुस्तक या प्रतिमाके गिरा देनेपर, पाँच स्थावर कायका घात होनेपर, बिना देखे स्थानमें मल-मूत्रादि करनेपर, पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्रियाके अन्तमें तथा व्याख्यान आदि करनेके अन्तमें कायोत्सर्ग करना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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