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________________ ५१८ धर्मामृत ( अनगार) अथ विवेकलक्षणमाह संसक्तेऽन्नादिके दोषान्निवर्तयितुमप्रभोः। यत्तद्विभजनं साधोः स विवेकः सतां मतः ॥४९॥ संसक्त-संबद्ध सम्म छिते वा। अप्रभोः-असमर्थस्य । तद्विभजनं-संसक्तान्नपानोपकरणादेवियोजनम् ॥४९॥ अथ भङ्गचन्तरेण पुनर्विवेकं लक्षयति विस्मृत्य ग्रहणे प्रासोहिणे वाऽपरस्य वा। प्रत्याख्यातस्य संस्मृत्य विवेको वा विसर्जनम् ॥५०॥ अप्रासोः-सचित्तस्य । अपरस्य-प्रासुकस्य । उक्तं च 'शक्त्यानगृहनन प्रयत्नेन परिहरतः कुतश्चित् कारणादप्रासुकग्रहणग्राहणयोः प्रासुकस्यापि प्रत्याख्यातस्य विस्मरणात् प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जनं विवेक इति [ तत्त्वार्थवा०, पृ. ६२२ ] ॥५०॥ अथ व्युत्सर्गस्वरूपमाह स व्युत्सर्गो मलोत्सर्गाद्यतीचारेऽवलम्ब्य सत् । ध्यानमन्तमुहूर्तादि कायोत्सर्गेण या स्थितिः॥५१॥ दुःस्वप्न-दुश्चिन्तन-मलोत्सर्जन-मूत्रातिचार-नदीमहाटवीतरणादिभिरन्यैश्चाप्यतीचारे सति ध्यानमवलम्ब्य कायमुत्सृज्य अन्तर्मुहूर्तदिवस-पक्ष-मासादिकालावस्थानं व्युसर्ग इत्युच्यत इति ॥५१।। १२ की जाती है तब तदुभय प्रायश्चित्तका कथन व्यर्थ होता है। इसका समाधान यह है कि सब प्रतिक्रमण आलोचनापूर्वक ही होते हैं। किन्तु अन्तर यह है कि प्रतिक्रमण गुरुकी आज्ञासे शिष्य ही करता है और तदुभय गुरुके द्वारा ही किया जाता है ॥४८॥ विवेक प्रायश्चित्तका लक्षण कहते हैं संसक्त अन्नादिकमें दोषोंको दूर करने में असमर्थ साधु जो संसक्त अन्नपानके उपकरणादिको अलग कर देता है उसे साधुओंने विवेक प्रायश्चित्त माना है ॥४९॥ पुनः अन्य प्रकारसे विवेकका लक्षण कहते हैं भूलसे अप्रासुक अर्थात् सचित्तका स्वयं ग्रहण करने या किसीके द्वारा ग्रहण करानेपर उसके छोड़ देनेको विवेक प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा प्रासुक वस्तु भी यदि त्यागी हुई है और उसका ग्रहण हो जाये तो स्मरण आते ही उसको छोड़ देना विवेक प्रायश्चित्त है ॥५०।। विशेषार्थ-यदि साधु भूलसे स्वयं अप्रासुक वस्तुको ग्रहण कर लेता है, या दूसरेके द्वारा ग्रहण कर लेता है तो स्मरण आते ही उसको त्याग देना विवेक प्रायश्चित्त है। इसी तरह यदि साधु त्यागी हुई प्रासुक वस्तुको भी भूलसे ग्रहण कर लेता है तो स्मरण आते ही त्याग देना विवेक प्रायश्चित्त है ॥५०॥ व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तका स्वरूप कहते हैं मलके त्यागने आदिमें अतीचार लगनेपर प्रशस्तध्यानका अवलम्बन लेकर अन्तर्मुहूर्त आदि काल पर्यन्त कायोत्सर्गपूर्वक अर्थात् शरीरसे ममत्व त्यागकर खड़े रहना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है ॥५१॥ विशेषार्थ-अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक (पृ. ६२२ ) में कहा है-दुःस्वप्न आनेपर, खोटे विचार होनेपर, मलत्यागमें दोष लगनेपर, नदी! या महाटवी (भयानक जंगल) को पार करनेपर या इसी प्रकारके अन्य कार्योंसे दोष लगनेपर ध्यानका अवलम्बन लेकर तथा कायसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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