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________________ ५०८ धर्मामृत ( अनगार) अथ विविक्तशय्यासनस्य तपसो लक्षणं फलं चोपदिशतिविजन्तुविहितबलाद्य विषये मनोविक्रिया निमित्तरहिते रति ददति शून्यसनादिके । स्मृतं शयनमासनाद्यथ विविक्तशय्यासनं तपोऽतिहतिवणिताश्रुतसमाधिसंसिद्धये ॥३०॥ विहितं-उद्गमादिदोषरहितम् । ते च पिण्डशुद्धयुक्ता यथास्वमत्र चिन्त्याः । अबलाद्यविषयःस्त्रीपशु-नपुंसक-गृहस्थ-क्षुद्रजीवानामगोचरः । मनोविक्रियानिमित्तानि-अशुभसंकल्पकराः शब्दाद्याः । रति-मनसोऽन्यत्र गमनौत्सुक्यनिवृत्तिम् । सद्मादि-गृहगुहा-वृक्षमूलादि । आसनादि-उपवेशनोद्भाव. स्थानादि । अतिहतिः-आबाधात्ययः । वर्णिता-ब्रह्मचर्यम् ॥३०॥ अथ विविक्तवसतिमध्युषितस्य साधोरसाधुलोकसंसर्गादिप्रभवदोषसंक्लेशाभावं भावयति असभ्यजनसंवासदर्शनोत्थैर्न मथ्यते। मोहानुरागविद्वेषैविविक्तवसति श्रितः ॥३१॥ विविक्तवसतिम् । तल्लक्षणं यथा 'यत्र न चेतोविकृतिः शब्दाद्येषु प्रजायतेऽर्थेषु । स्वाध्यायध्यानहतिर्न यत्र वसतिविविक्ता सा ।।' अपि च "हिंसाकषायशब्दादिवारकं ध्यानभावनापथ्यम् । निर्वेदहेतुबहुलं शयनासनमिष्यते यतिभिः ॥" तन्निवासगुणश्च __ 'कलहो रोलं झञ्झा व्यामोहः संकरो ममत्वं च । ध्यानाध्ययनविघातो नास्ति विविक्ते मुनेवंसतः ॥' [ भ. आ., २३२ का रूपान्तर ] रोलः-शब्दबहुलता । झञ्झा-संक्लेशः। संकरः-असंयतैः सह मिश्रणम् । ध्यानं एकस्मिन् प्रमेये निरुद्धा ज्ञानसंततिः । अध्ययनं-अनेकप्रमेयसंचारी स्वाध्यायः ॥३१॥ आगे विविक्तशय्यासन नामक तपका लक्षण और फल कहते हैं अनेक प्रकारकी बाधाओंको दूर करनेके लिए तथा ब्रह्मचर्य, शास्त्रचिन्ता और समाधिकी सम्यक सिद्धिके लिए, ऐसे शन्य घर, गुफा आदिमें, जो जन्तुओंसे रहित प्रासक हो, उद्गम आदि दोषोंसे रहित हो, स्त्री, पशु, नपुंसक, गृहस्थ और क्षुद्र जीवोंका जहाँ प्रवेश न हो, जहाँ मनमें विकार उत्पन्न करनेके निमित्त न हों, तथा जो मनको अन्यत्र जानेसे रोकता हो, ऐसे स्थानमें शयन करना, बैठना या खड़ा होना आदिको विविक्तशय्यासन तप कहा है ॥३०॥ आगे कहते हैं कि एकान्त स्थानमें रहनेवाले साधुके असाधु लोगोंके संसर्गसे होनेवाले दोष और संक्लेश नहीं होते एकान्त स्थानमें वास करनेवाला साधु असभ्य जनोंके सहवास और दर्शनसे उत्पन्न होनेवाले मोह, राग और द्वेषसे पीड़ित नहीं होता ॥३१॥ विशेषार्थ-विविक्तवसतिका लक्षण इस प्रकार कहा है-'जिस स्थानमें शब्द आदि विषयोंसे चित्तमें विकार पैदा नहीं होता, अर्थात् जहाँ विकारके साधन नहीं हैं और जहाँ स्वाध्याय और ध्यानमें बाधा नहीं आती वह विविक्तवसति है। ऐसे स्थानके गुण इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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