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________________ सप्तम अध्याय ५०७ काङ्क्षाकृन्नवनीतमक्षमदसृण्मांसं प्रसङ्गप्रदं मद्यं क्षौद्रमसंयमार्यमुदितं यद्यच्च चत्वार्यपि । सम्मूलिसवर्णजन्तुनिचितान्युच्चैर्मनोवि क्रिया हेतुत्वादपि यन्महाविकृतयस्त्याज्यान्यतो धामिकैः ॥२८।। इत्याज्ञां दृढमाहती दधदघाभीतोऽत्यजत् तानि य श्चत्वार्येव तपःसमाधिरसिकः प्रागेव जीवावधि । अभ्यस्येत्स विशेषतो रसपरित्यागं वपुः संलिखन् स्याद्षीविषवद्धि तन्वपि विकृत्यङ्गन शान्त्यै श्रितम् ॥२९॥ कांक्षाकृत्-गृद्धिकरम् । अक्षमदसूट-इन्द्रियदर्पकारि । प्रसङ्गप्रदं-पुनः पुनस्तत्र वृत्तिरगम्या- ९ गमनं वा प्रसङ्गस्तं प्रकर्षेण ददाति । असंयमार्थ-रसविषयकरागात्मक इन्द्रियासंयमः, रसजजन्तुपीडालक्षणश्च प्राणासंयमः । तन्निमित्तम् । संमूर्छाला:-सन्मूर्छनप्रभवाः । सवर्णाः-स्वस्य योनिद्रव्येण समानवर्णाः । उच्चैर्मनोविक्रियाहेतुत्वात्-महाचेतोविकारकारगत्वात् । धार्मिकैः-धर्ममहिंसालक्षणं चरद्भिः ॥२८॥ १२ दृढं सर्वज्ञाज्ञालङ्घनादेव दुरन्तसंसारपातो ममाभूद् भविष्यति च तदेनां जातुचिन्न लङ्घयेयमिति निर्बन्धं कृत्वेत्यर्थः । तपःसमाधिरसिकः-तपस्येकाग्रतां तपःसमाधी वा नितान्तमाकाङ्क्षन् । उक्तं च 'चत्तारि महाविगडीओ होंति णवणीदमज्जमंसमहू । कंखा-पसंग-दप्पासंजमकारीओ एदाओ ।। आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण । ताओ जावज्जीवं णिन्वुढाओ पुरा चेव ॥ [ मूलाचार, गा. ३५३-३५४ ] दृषीविषवत्-मन्दप्रभावविषमिव । उक्तं च 'जीणं विषघ्नौषधिभिहतं वा दावाग्निवातातपशोषितं वा । स्वभावतो वा न गुणैरुपेतं दृषीविषाख्यं विषमभ्युपैति ॥ [ तन्वपि-अल्पमपि ॥२९॥ पर्यन्त छोड़ चुका है, वही शरीरको कृश करनेकी इच्छासे रसपरित्यागका विशेष रूपसे अभ्यास करनेका पात्र है, यह बात दो पद्योंसे कहते हैं नवनीत-मक्खन तृष्णाको बढ़ाता है, मांस इन्द्रियोंमें मद पैदा करता है । मद्य जो एक बार पी लेता है बार-बार पीना चाहता है। साथ ही, अभोग्य नारीको भी भोगनेकी प्रेरणा करता है। शहद असंयमका कारण है। असंयम दो प्रकारका होता है-इन्द्रिय असंयम और प्राणी असंयम । रसविषयक अनुरागको इन्द्रिय असंयम कहते हैं और रसमें रहनेवाले जीवोंको पीड़ा होना प्राणी असंयम है। शहदके सेवनसे दोनों असंयम होते हैं। दूसरी बात यह है कि इन चारोंमें ही उसी रगके सम्मूच्छन जीव भरे हैं। तीसरी बात यह है किये उच्च मनोविकारमें कारण हैं। इनके सेवनसे मन अत्यधिक विकारयुक्त होता है। इसीलिए इन्हें महाविकृति कहा है। अतः अहिंसा धर्मके पालकोंको इन्हें त्यागना चाहिए। जिन भगवान्की इस आज्ञाको दृढ़ रूपसे धारण करता हुआ, पापसे भयभीत और तप तथा समाधिका अनुरागी जो मुमुक्षु पहले ही जीवनपर्यन्तके लिए उन चारोंका ही त्याग कर चुका है, वह शरीरको कृश करनेके लिए रसपरित्यागका विशेष रूपसे अभ्यास करे, क्योंकि जिस विषका प्रभाव मन्द हो गया है उस विषकी तरह थोड़ा भी विकारके कारणको अपनानेसे कल्याण नहीं होता ॥२८-२९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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