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________________ ५०० धर्मामृत ( अनगार) प्रसिद्धमन्नं वै प्राणा नृणां तत्त्याजितो हठात् । नरो न रमते ज्ञाने दुर्ध्याना” न संयमे ॥१७॥ स्पष्टम् ॥१७॥ अथ दीर्घ सत्यायषि नित्यनैमित्तिकांश्चोपवासान यथाशक्ति विधाय तच्छेषमनेनैव नयेदिति शिक्षार्थमाह तन्नित्यनैमित्तिकभुक्तिमुक्ति विधीन् यथाशक्ति चरन् विलय । दोघं सुधीर्जीवितवम॑ युक्त स्तच्छेषमत्ये त्वशनोज्झयैव ॥१८॥ नित्या-लञ्चाद्याश्रयाः। नैमित्तिका:-कनकावल्याद्याश्रयाः। एतेषां लक्षणं टीकाराधनायां बोध्यम् । युक्तः-समाहितः सन् । अशनोज्झया-अनशनेन भक्तप्रत्याख्यानेङ्गिनीप्रायोपगमनमरणानामन्यतमेनेत्यर्थः । १२ ॥१८॥ अथानशनतपसि प्ररोचनामुत्पादयन्नाहप्राञ्चः केचिदिहाप्युपोष्य शरदं कैवल्यलक्ष्म्याऽरुचन् षण्मासानशनान्तवश्यविधिना तां चक्रुरुत्का परे । इत्यालम्बितमध्यवृत्यनशनं सेव्यं सदायैस्तन तप्तां शुद्धयति येन हेम शिखिना मूषामिवात्माऽऽवसन् ॥१९॥ १८ प्राञ्चः-पूर्वपुरुषाः। केचित्-बाहुबल्यादयः । शरदं-संवत्सरं यावत् । पुरे-पुरुदेवादयः । शुद्धयति-द्रव्यभावकर्मभ्यां किट्टकालिकाम्यां च मुच्यत इत्यर्थः ॥१९॥ मनष्योंका प्राण अन्न ही है यह कहावत प्रसिद्ध है। जबरदस्ती उस अन्नको छडा देनेपर खोटे ध्यानमें आसक्त मनुष्य न ज्ञानमें ही मन लगाता है और न संयममें मन लगाता है ॥१७॥ __ आगे यह शिक्षा देते हैं कि यदि आयु लम्बी हो तो यथाशक्ति नित्य-नैमित्तिक उपवास करके शेष आयुको उपवासपूर्वक ही बितावे यतः सिद्धान्तमें अनशन तपके गुण उक्त रूपसे कहे हैं अतः बुद्धिमान साधुको शक्तिके अनुसार भोजनको त्यागनेके जो नित्य और नैमित्तिक विधियाँ हैं उन्हें पालते हुए लम्बे जीवनके मार्गको बितावे। उसके शेष भागको भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण या प्रायोपगमनमरणमें से किसी एक अनशनके द्वारा ही बितावे ॥१८॥ विशेषार्थ-केशलोंच आदिके दिन मुनिको उपवास करनेका जो नियम है वह नित्यविधि है । तथा कनकावली, सिंहनिष्क्रीडित आदि जो अनेक प्रकारके व्रत कहे हैं वे नैमित्तिक हैं। जिनसेनके हरिवंशपुराणके ३४वें अध्यायमें उनका स्वरूप कहा है ॥१८॥ अनशन तपमें विशिष्ट रुचि उत्पन्न कराते हैं इसी भरत क्षेत्रमें बाहुबली आदि कुछ पूर्वपुरुष एक वर्ष तक उपवास करके केवलज्ञानरूप लक्ष्मीसे सुशोभित हुए। दूसरे भगवान् ऋषभदेव वगैरहने चतुर्थभक्त उपवाससे लेकर छह महीनेके उपवासरूप वशीकरण प्रयोगके द्वारा ही उस केवलज्ञानरूप लक्ष्मीको उत्कण्ठित कर लिया। इसलिए मुमुक्षुओंको सदा मध्यमवृत्तिका आलम्बन लेकर अनशन करना चाहिए १. मनशनेनैव भ. कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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