SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्याय ४९९ m1 अथोत्तमादिभेदानां लक्षणान्याह धारणे पारणे सैकभक्तो वयंश्चतुर्विधः। साम्बुर्मध्योऽनेकभक्तः सोऽधर्मस्त्रिविधावुभौ ॥१५॥ चतुर्विधः-चतुर्विधसंज्ञक उपवासः । साम्बु:-सपानीयः, धारणे पारणे सैकभक्त इत्येवम् । अनेकभक्त:-धारणे पारणे चैकभक्तरहितः साम्बुरित्येवम् । त्रिविधी-त्रिविधसंज्ञो । उक्तं च 'चतुर्णां तत्र भुक्तीनां त्यागे वर्यश्चतुविधः । उपवासः सपानीयस्त्रिविधो मध्यमो मतः॥' 'भुक्तिद्वयपरित्यागे त्रिविधो गदितोऽधमः । उपवासस्त्रिधाऽप्येषः शक्तित्रितयसूचकः ॥' [ अमित. श्रा. १२।१२३-१२४ ] ॥१५॥ ९ अथाशक्तितो भोजनत्यागे दोषमाह यदाहारमयो जीवस्तवाहारविराधितः। नातरौद्रातुरो ज्ञाने रमते न च संयमे ॥१६॥ १२ आहारमयः-आहारेण कवललक्षणेन निर्वृत्त इव । द्रव्यप्राणप्रधानोऽत्र प्राणी । आहारविराधितःभोजनं हठात्त्याजितः ॥१६॥ एतदेव भङ्गयन्तरेणाहउपवासके उत्तम आदि भेदोंका लक्षण कहते हैं धारणा और पारणाके दिन एक बार भोजनके साथ जो उपवास किया जाता है वह उत्तम है । उसका नाम 'चतुर्विध है। धारणा और पारणाके दिन एक बार भोजन करके जिस उपवास में केवल जल लिया जाता है वह मध्यम है । तथा धारणा और पारणाके दिन दोनों बार भोजन करनेपर भी जिस उपवासमें केवल जल लिया जाता है वह अधम है। इन मध्यम और अधमका नाम त्रिविध है ॥१५॥ विशेषार्थ-भगवती आराधनामें (गा. २०९) अनशनके दो भेद किये हैं-अद्धानशन और सर्वानशन । संन्यास धारण करनेपर जो जीवनपर्यन्तके लिए अशनका त्याग किया जाता है वह सर्वानशन है और कुछ कालके लिए अशनके त्यागको अदानशन कहते हैं। आचार्य अमितगतिने इसके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भेद कहे हैं। यथा 'चारों प्रकारके आहारका त्याग चतुर्विध नामक उत्तम उपवास है । पानी सहित उपवास त्रिविध नामक मध्यम उपवास है । अर्थात् धारणा और पारणा के दिन एक बार भोजन करे और उपवासके दिन केवल एक बार जल लेवे यह मध्यम त्रिविध नामक उपवास है। तथा धारणा और पारणाके दिन अनेक बार भोजन करके भी उपवास के दिन भी केवल जल ले तो यह अधम त्रिविध उपवास है। यह तीनों ही प्रकारका उपवास उत्तम, मध्यम और अधम शक्तिका सूचक है। शक्तिके अनुसार उपवास करना चाहिए।' श्वेताम्बर परम्परामें भी अनशनके यावज्जीवक तथा चतुर्थ भक्त आदि भेद हैं ।।१५।।। बिना शक्तिके भोजन त्यागनेमें दोष बतलाते हैं यतः प्राणी आहारमय है अर्थात् मानो आहारसे ही वह बना है। इसलिए आहार छुड़ा देनेपर उसे आत और रौद्रध्यान सताते हैं। अतः उसका मन न ज्ञान में लगता है और न संयममें लगता है ॥१६॥ इसी बातको दूसरी तरहसे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy