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________________ षष्ठ अध्याय ४८३ अथ स्त्रीपरीषहसहनमुपदिशति रागाद्युपप्लुतमति युवती विचित्रां श्चित्तं विकर्तुमनुकूलविकूलभावान् । संतन्वतों रहसि कूर्मवदिन्द्रियाणि संवृत्य लघ्वपवदेत गुरुक्तियुक्त्या ॥१६॥ रागाद्युपप्लुतमति:-रागद्वेषयौवनदर्परूपमदविभ्रमोन्मादमद्यपानावेशाद्युपहतबुद्धिः । विकतुदृषयितम । अनकला:-लिङ्गहर्षणालिङ्गनजघनप्रकाशनभ्रविभ्रमादयः । विकला:-लिङ्गकदर्थनापहसनताड. नावघट्टनादयः । संतन्वन्ती-सातत्येन कुर्वन्ती। संवृत्य-अन्तः प्रविश्य । अपवदेत्-निराकुर्यात् । गुरूक्तियुक्त्या-गुरुवचनप्रणिधानेन ॥९६।। अथ चर्यापरीषहसहनमन्वाचष्टेबिभ्यद्भवाच्चिरमुपास्य गुरून्निरूढ ब्रह्मव्रतश्रुतशमस्तदनुज्ञयैकः । क्षोणीमटन् गुणरसादपि कण्टकादि कष्टे सहत्यनधियन् शिबिकादि चर्याम् ॥१७॥ निरूढाः-प्रकर्ष प्राप्ताः । एक:-असहायः। अटन्-ग्रामे एकरात्रं नगरे पञ्चरात्रं प्रकर्षणावस्था- ... तव्यमित्यास्थाय विहरन् । गुणरसोन्-संवेगसंयमादिगुणान् । रागान् (?)। कण्टकादि-आदिशब्देन परुषशर्करा-मृत्कण्टकादिपरिग्रहः । शिबिकादि-पूर्वानुभूतयानवाहनादिगमनम् ॥९७॥ ऊपरसे भूख-प्यासकी वेदना आदिसे साधुको संयमसे विराग पैदा होता है। किन्तु धीर-वीर संयमी साध उसे रोकता है। ___यहाँ कहा जा सकता है कि इस परीषहको अलगसे क्यों गिनाया, क्योंकि भूख-प्यास आदि सभी परीषह अरतिकी कारण है। इसका समाधान यह है कि कभी-कभी भूख-प्यासका कष्ट न होनेपर भी अशुभ कर्मके उदयसे संयमसे अरति होती है उसीको रोकनेके लिए इसका पृथक् कथन किया है ॥१५॥ आगे स्त्रीपरीषह सहनेका उपदेश देते हैं राग-द्वेष, यौवनका मद, रूपका घमण्ड, विलास, उन्माद या मद्यपानके प्रभावसे जिसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है, ऐसी युवती स्त्री यदि एकान्तमें साधुके चित्तको विकारयुक्त करनेके लिए नाना प्रकारके अनुकूल और प्रतिकूल भावोंको बराबर करती रहे अर्थात् कभी आलिंगन करे, अपने अंगोंका प्रदर्शन करे, हँसे, साधुके शरीरको पीड़ा दे, तो साधुको कछुएकी तरह अपनी इन्द्रियोंको संकुचित करके गुरुके द्वारा बतलायी गयी युक्तिसे शीघ्र ही उसका निराकरण करना चाहिए ॥९॥ अब चर्या परीषहको सहनेका कथन करते हैं संसारसे भयभीत साधु चिरकाल तक गुरुओंकी उपासना करके ब्रह्मचर्य व्रत, शास्त्रज्ञान और समताभावमें दृढ़ होकर दर्शन विशुद्धि आदि गुणोंके अनुरागसे, गुरुकी आज्ञासे, पृथ्वीपर विहार करता है और पैरमें काँटा चुभने आदिका कष्ट होनेपर भी गृहस्थाश्रममें अनुभूत सवारी आदिका स्मरण भी नहीं करते हुए चर्यापरीषहको सहता है ।।१७।। १. रसाद् भ. कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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