SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८२ धर्मामृत (अनगार) अथ निजितनाग्न्यपरीषहमृषि लक्षयति___निर्ग्रन्थनिर्भूषणविश्वपूज्यनाग्न्यव्रतो दोषयितुप्रवृत्ते । चित्तं निमित्त प्रबलेऽपि यो न स्पृश्येत् दोषैर्जितनाग्न्यरुक् सः ॥१४॥ निर्ग्रन्थेत्यादि । उक्तंच 'वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्ताइणा असंवरणे। णिभूसण णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पुज्ज ॥ [ मूलाचार गा. ३० ] दोषयितुं-विकृति नेतुम् । निमित्ते-वामदृष्टिशापाकर्णनकामिन्यालोकनादौ ॥९४॥ अथारतिपरीषहजयोपायमाहलोकापवादभयसवतरक्षणाक्ष रोधक्षुदादिभिरसह्यमदीर्यमाणाम् । स्वात्मोन्मुखो धृतिविशेषहृतेन्द्रियार्थ तृष्णः शृणात्वरतिमाश्रितसंयमश्रीः ॥१५॥ लोकेत्यादि । यद्बाह्या अप्याहुः 'सन्तः सच्चरितोदयव्यसनिनः प्रादुर्भवद्यन्त्रणाः सर्वत्रैव जनापवादचकिता जीवन्ति दुःखं सदा। अव्युत्पन्नमतिः कृतेन न सता नैवासनाप्याकुलो युक्तायुक्तविवेकशून्यहृदयो धन्यो जनः प्राकृतः ॥' [ अपि च 'विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां, प्रिया न्याय्या वृत्तिमलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम् । असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः, सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ।।' [ शृणातु-हिनस्तु ॥१५॥ नाग्न्यपरीषहको सहनेवाले साधुका स्वरूप कहते हैं वस्त्रादिसे रहित, भूषण आदिसे रहित तथा विश्वपूज्य नाग्न्य व्रतको स्वीकार करनेवाला जो साधु चित्तको दूषित करनेके लिए प्रबल निमित्त कामिनी आदिका अवलोकन आदि उपस्थित होनेपर भी दोषोंसे लिप्त नहीं होता वह नाग्न्यपरीषहको जीतनेवाला है ॥१४॥ अरतिपरीषहजयको कहते हैं संयमरूपी सम्पदाको स्वीकार करनेवाले और विशिष्ट सन्तोषके द्वारा विषयोंकी अभिलाषाको दूर करनेवाले तथा आत्मस्वरूपकी ओर अभिमुख साधु लोकापवादका भय, सद्बतकी रक्षा, इन्द्रियोंका जय तथा भूख आदिकी वेदनासे उत्पन्न हुई दुःसह अरतिको दूर करे ॥२५॥ विशेषार्थ-संयम एक कठोर साधना है, उसमें पद-पदपर लोकापवादका भय रहता है, व्रतोंकी रक्षाका महान् उत्तरदायित्त्व तो रहता ही है सबसे कठिन है इन्द्रियोंको जीतना । १. दयादन्यो भ. कु. च, । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy