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________________ षष्ठ अध्याय ४६१ बाह्याध्यात्मिकपुद्गलात्मकवपुयुग्मं भृशं मिश्रणा धम्नः किट्टककालिकाद्वयमिवाभादप्यदोऽनन्यवत् । मत्तो लक्षणतोऽन्यदेव हि ततश्चान्योऽहमर्थादत स्त दानुभवात्सदा मुदमुपैम्यन्वेमि नो तत्पुनः ॥६७॥ बाह्यं-रसादिधातुमयमौदारिकम्, आध्यात्मिक-ज्ञानावरणादिमयं कार्मणम् । मिश्रणात्-कथंचिदेकत्वोपगमात् । आभादपि-आभासमानमपि । अनन्यवत्-दुःशक्यविवेचनत्वादभिन्नमिव । तथा चोक्तम्- ६ ___ववहारणओ भासइ जीवो देहो य हवइ खलु एक्को। ण उ णिच्छयस्स जीवो देहो य कयावि एकट्ठो।' [ समय प्राभृत, गा. २७ ] २ लक्षणतः--अन्योन्यव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् । तथेह देहस्य रूपादिमत्वमात्म- ९ नश्चोपयोगः । जीवदेहावत्यन्तं भिन्नी भिन्नलक्षणलक्षितत्वात्, जलानलवत् । अन्यो हि-भिन्न एव । तभेदानुभवात्-वपुर्युग्मादन्यत्वेनात्मनः स्वयं संवेदनात् । उक्तं च 'वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातन्त्र्येण चकासति । चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयं दृश्यत एव हि ॥' [तत्त्वानु०, १६८ श्लो. ] बाह्य रसादि धातुमय औदारिक शरीर और आध्यात्मिक ज्ञानावरणादिमय कार्मण शरीर, ये दोनों पुद्गलात्मक हैं; स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णमय परमाणुओंसे बने हैं। जैसे स्वर्ण बाह्य स्थलमल और सूक्ष्म अन्तर्मलसे अत्यन्त मिला होनेसे एकरूप प्रतीत होता है। उसी तरह ये दोनों शरीर भी आत्मासे अत्यन्त मिले होनेसे अभिन्नकी तरह प्रतीत होते हैं। किन्तु लक्षणसे ये दोनों मुझसे भिन्न ही हैं और मैं भी वास्तवमें उनसे भिन्न हूँ। इसलिए दोनों शरीरोंसे आत्माको भिन्न अनुभव करनेसे मैं सदा आनन्दका अनुभव करता हूँ। और अब इन शरीरोंको मैं पुनः धारण नहीं करूँगा ॥६७॥ विशेषार्थ-आत्माके साथ आभ्यन्तर कार्मण शरीर तो अनादि कालसे सम्बद्ध है किन्तु औदारिक आदि तीन शरीर अमुक-अमुक पर्यायोंमें ही होते हैं। ये सभी शरीर पौद्गलिक हैं । पुद्गल परमाणुओंसे बनते हैं। किन्तु आत्माके साथ इनका ऐसा मेल है कि उन्हें अलग करना कठिन है। अतः बुद्धिमान तक दोनोंको एक समझ बैठते हैं। फिर भी लक्षणसे जीव और शरीरके भेदको जाना जा सकता है। परस्परमें मिले हुए पदार्थ जिसके द्वारा पृथक्पृथक जाने जाते हैं उसे लक्षण कहते हैं। शरीरका लक्षण रूपादिमान है और आत्माका लक्षण उपयोग है । अतः आत्मा और शरीर अत्यन्त भिन्न हैं क्योंकि दोनोंका लक्षण भिन्न है, जैसे जल और आग भिन्न है। समयसारमें कहा है-व्यवहारनय कहता है कि जीव और शरीर एक हैं । किन्तु निश्चयनयस जीव और शरीर कभी भी एक नहीं हो सकते। और भी कहा है-'जो अतीत कालमें चेतता था, आगे चेतेगा, वर्तमानमें चेतता है वह मैं चेतन द्रव्य हूँ। जो कुछ भी नहीं जानता, न पहले जानता था और न भविष्यमें जानेगा वह शरीरादि है, मैं नहीं हूँ।' १. 'यदचेतत्तथापर्व चेतिष्यति यदन्यदा। चेततीत्थं यदत्राद्य तच्चिद् द्रव्यं समस्म्यहम् ॥ यन्न चेतयते किंचिन्नाऽचेतयत किंचन । यच्चेतयिष्यते नैव तच्छरीरादि नास्म्यहम्॥-तत्त्वानु० १५६, १५५ श्लो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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