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________________ ४६० धर्मामृत ( अनगार) नैरात्म्यं जगत इवार्य नैर्जगत्यं निश्चिन्वन्ननुभवसिद्धमात्मनोऽपि । मध्यस्थो यदि भवसि स्वयं विविक्तं स्वात्मानं तदनुभवन् भवादपैषि ॥६६॥ नैरात्म्यम्-अनहंकारास्पदत्वात् । नैर्जगत्यं-पराकारशून्यत्वात् । उक्तं च 'परस्परपरावृत्ताः सर्वे भावाः कथंचन । नैरात्म्यं जगतो यद्वन्नजंगत्यं तथात्मनः ॥' [ तत्त्वानु. १७५ । ] मध्यस्थः-रागद्वेषरहितोऽध्यात्मतत्त्वनिष्ठो वा। विविक्तं-देहादिभ्यः पृथग्भूतं शुद्धमित्यर्थः । अपैषि-प्रच्यवसे त्वम् ॥६६॥ अयान्यत्वभावनापरस्य ततोऽयुनरावृत्तिकामतां कथयति हे आर्य ! जिस प्रकार जगत्का स्वरूप नैरात्म्य है उसी तरह आत्माका स्वरूप नैर्जगत्य-समस्त परद्रव्योंके ग्रहणसे रहित है। यह बात अनुभवसे-स्वसंवेदनसे सिद्ध है। अतः ऐसा निश्चय करके यदि तू रागद्वेषसे रहित होकर अध्यात्म तत्त्वमें निष्ठ होता है तो स्वयं शरीरादिसे भिन्न आत्माका अनुभव करते हुए संसारसे मुक्त हो सकता है ॥६६॥ विशेषार्थ-संसारमें दो ही मुख्य तत्त्व हैं-जड़ और चेतन । जड़ कभी चेतन नहीं हो सकता और चेतन कभी जड़ नहीं हो सकता। अतः जगत्का स्वरूप नैरात्म्य है । 'मैं' इस रूपसे अनुभव में आनेवाले अन्तस्तत्त्वको आत्मा कहते हैं। और आत्मासे जो रहित है उसे निरात्म कहते हैं और निरात्मके भावको नैरात्म्य कहते हैं। यह विश्व 'मैं' इस बुद्धिका विषय नहीं है, एक आत्माके सिवाय समस्त परद्रव्य अनात्मस्वरूप हैं। इसी तरह आत्माका स्वरूप भी 'नैर्जगत्य' है । 'यह' इस रूपसे प्रतीयमान समस्त बाह्य वस्तु जगत् है । और जगत्से जो निष्क्रान्त है वह निर्जगत् है उसका भाव नैर्जगत्य है। अर्थात् आत्मा समस्त परद्रव्योंके ग्रहणसे रहित है। आत्माके द्वारा आत्मामें आत्माका परके आकारसे रहित रूपसे संवेदन होता है, उसे ही स्वसंवेदन कहते हैं। जो स्वसंवेदनसे सिद्ध है उसे अनुभवसिद्ध कहते हैं। कहा भी है-'सभी पदार्थ परस्परमें एक दूसरेसे भिन्न हैं । अतः जैसे जगत्का स्वरूप नैरात्म्य है वैसे ही आत्माका स्वरूप नैर्जगत्य है।' ऐसे वस्तुस्वरूपका विचार करके सामायिक चारित्रका आराधक मुमुक्षु यदि मध्यस्थ रहे, किसीसे राग और किसीसे द्वेष न करके आत्मनिष्ठ रहे और शरीरादिसे भिन्न आत्माका अनुभवन करे तो संसारसे मुक्त हो सकता है। अतः मोक्षमार्गमें अन्यत्व भावनाका स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसलिए मुमुक्षुको उसका चिन्तन करना चाहिए। कहा है-'कमैसे और कर्मके कार्य क्रोधादि भावोंसे भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माको नित्य भाना चाहिए । उससे नित्य आनन्दमय मोक्षपदकी प्राप्ति होती है' ॥६६।। आगे कहते हैं कि जो अन्यत्व भावनामें लीन रहता है वह अपुनर्जन्मकी अभिलाषा करता है १. 'कर्मभ्यः कर्मकार्येभ्यः पृथग्भूतं चिदात्मकम् । आत्मानं भावयेन्नित्यं नित्यानन्दपदप्रदम् ॥ [ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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