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________________ ४५२ धर्मामृत (अनगार) अथ ब्रह्मचर्यस्वरूपं धर्म निरूपयन्नाह चरणं ब्रह्मणि गुरावस्वातन्त्र्येण यन्मुदा। चरणं ब्रह्मणि परे तत्स्वातन्त्र्येण वणिनः ॥५५॥ वर्णिन:-ब्रह्मचारिणः ॥५५॥ अथ क्षमादिधर्माणां गुप्त्यादिभ्योऽपोद्धारव्यवहारपुरस्सरमुत्तमविशेषणं व्याचष्टे गुप्त्यादिपालनाथं तत एवापोद्धृतैः प्रतिक्रमवत् । दृष्टफलनियंपेक्षः क्षान्त्यादिभिरुत्तमैर्यतिर्जयति ॥५६॥ अपोद्धृतैः-पृथक्कृत्योक्तैः । दृष्टफलनिव्यपेक्षः-लाभादिनिरपेक्षत्वादुत्तमरित्यर्थः ॥५६॥ अथ मुमुक्षूणामनुप्रेक्षाचिन्तनाधीनचेतसां बहुप्रत्यूहेऽपि मोक्षमार्गे कश्चित् प्रत्यवायो न स्यादित्युपदेश___ पुरस्सरं नित्यं तच्चिन्तने तानुद्योगयन्नाह अब ब्रह्मचर्य धर्मका कथन करते हैं मैथुनसे निवृत्त ब्रह्मचारी जो स्वतन्त्रतापूर्वक परब्रह्ममें प्रवृत्ति करता है या गुरुके अधीन होकर आत्मामें प्रवृत्ति करता है उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं ।।५५।।। विशेषार्थ-ब्रह्म शब्दका अर्थ है आत्मा या ज्ञान । उसमें प्रवृत्तिका नाम ब्रह्मचर्य है । लोकमें मैथुन सेवनसे निवृत्त होनेको ब्रह्मचर्य कहते हैं। मैथुन सेवी व्यक्ति आत्मामें प्रवृत्ति कर नहीं सकता। अतः जो चतुर्थ व्रत ब्रह्मचर्यकी प्रतिज्ञा लेकर व्यवहारसे आध्यात्मिक गुरुकी आज्ञानुसार और परमार्थसे स्वात्माधीन होकर प्रेमपूर्वक स्वात्मामें रमता है वही ब्रह्मचारी है । वह परम आत्मज्ञानका स्वच्छन्द होकर अनुभवन करता है ॥५५॥ इस प्रकार ब्रह्मचर्यका कथन समाप्त होता है। आगे क्षमा आदि धर्मोको गुप्ति आदिसे पृथक् करके कहनेका कारण बतलाते हुए उत्तम विशेषणको स्पष्ट करते हैं गुप्ति, समिति और व्रतोंकी रक्षाके लिए प्रतिक्रमणकी तरह गुप्ति आदिसे पृथक् करके क्षमा आदिको कहा है । तथा प्रत्यक्ष फल लाभ आदिकी अपेक्षा न होनेसे उन्हें उत्तम कहा है । इन उत्तम क्षमा आदिके द्वारा शुद्धोपयोगी मुनि जयवन्त होता है ॥५६॥ विशेषार्थ-जैसे लगे हुए दोषोंको दूर करने के लिए प्रतिक्रमण कहा है, उसी तरह गुप्ति, समिति और व्रतोंमें दोष न लगे. इसलिए उत्तम क्षमा आदिका पृथक कथन किया है। अन्यथा ये दस धर्म गुप्ति आदिमें ही समाविष्ट हो जाते हैं। तथा क्षमा, मार्दव आदि दसों धर्म उत्तम ही होते हैं। फिर भी उनके साथ उत्तम विशेषण इसलिए लगाया है कि किसी लौकिक फलकी अपेक्षासे पाले गये क्षमा आदि धर्म उत्तम नहीं होते। जैसे शत्रुको बलवान् जानकर क्षमाभाव धारण करना उत्तम क्षमा नहीं है। इसी तरह अन्य भी जानना। इस प्रकार उत्तम क्षमा आदि दस लक्षण धर्मका अधिकार समाप्त होता है। इन दस धर्मोंका विशेष कथन तत्त्वार्थसूत्र अ.९ के व्याख्या ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक आदिमें किया है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी भाषा टीकामें पं. सदासुखजीने विशेष विस्तारसे कथन किया है ॥५६।। मोक्षके मार्ग में बहुत विघ्न हैं। फिर भी उसमें कोई विघ्न न आवे, इसलिए बारह भावनाओंके चिन्तनमें संलग्न मुमुक्षुओंको नित्य उनके चिन्तनमें लगे रहनेकी प्रेरणा करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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