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________________ षष्ठ अध्याय ४५१ १२ दत्ताच्छम किलैति __दा रोगान्तरसंभवादशनतश्चोत्कर्षतस्तद्दिनम् । ज्ञानात्त्वाशुभवन्मुदो भवमुदां तृप्तोऽमृते मोदते तहास्तिरयन् ग्रहानिव रविर्भातीतरान् ज्ञानदः ॥५३॥ आतद्भवात्-वर्तमानजन्म यावत् । आशुभवन्मुदः-सद्यः संजायमाना प्रीतिर्यस्मात् । भवमुदा-संसारसुखानाम् । अमृते-मोक्षे । तिरयन्–तिरस्कुर्वन् ॥५३॥ - अथाकिञ्चन्यलक्षणधर्मानुष्ठायिनः परमाद्भुतफलप्रतिलम्भमभिधत्ते अकिंचनोऽहमित्यस्मिन् पथ्यक्षुण्णचरे चरन् । तददृष्टचरं ज्योतिः पश्यत्यानन्दनिर्भरम् ॥५४॥ अकिंचनः-नास्ति किंचनोपात्तमपि शरीरादिकं मम इत्यर्थः। उपात्तेष्वपि हि शरीरादिषु संस्कारादित्यागात् ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिंचन्यमिष्यते। अक्षुण्णचरे-पूर्व कदाचिदप्यनवगाहिते। अदृष्टचरं-पूर्व कदाचिदप्यनुपलब्धम् ॥५४॥ आगममें ऐसा सुना जाता है कि दिये गये अभयदानसे भिक्षु अधिकसे अधिक उसी भवमें सुखी रहता है। औषधदानसे अधिक से अधिक जबतक अन्य रोग उत्पन्न नहीं होता तबतक सुखी रहता है। भोजनदानसे अधिक से अधिक उसी दिन सुखी रहता है। किन्तु तत्काल आनन्दको देनेवाले ज्ञानदानसे सांसारिक सुखोंसे तृप्त होकर मोक्षमें सदा आनन्द करता है। अतः जैसे सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहोंको तिरस्कृत करता हुआ शोभता है उसी तरह ज्ञानदाता अभयदान आदि करनेवालोंको तिरस्कृत करता हुआ सुशोभित होता है ।।५३।। _ विशेषार्थ-चारों प्रकारके दानोंमें ज्ञानदान सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि यदि कोई किसी भिक्षुको अभयदान देता है कि तुम किसीसे भी मत डरना, तो इससे वह भिक्षु केवल उसी भवमें निर्भय होकर रह सकता है। मरने पर तो अभयदान भी समाप्त हो जाता है । यदि कोई किसी रोगी भिक्षुको औषधि देकर नीरोग करता है तो उससे भी भिक्षु तभी तक सुखी रहता है जब तक उसे दूसरा रोग नहीं होता। जैसे किसी भिक्षुको ज्वर आता है। ज्वरनाशक औषधके देनेसे ज्वर चला गया। तो वह भिक्षु तभी तक सुखी रहता है जब तक उसे अन्य रोग उत्पन्न नहीं होता । इसी प्रकार भिक्षुको भोजन देनेसे वह भिक्षु अधिक से अधिक उसी दिन सुखी रहता है। दूसरा दिन होते ही भूख सताने लगती है। किन्तु ज्ञानदानसे तत्काल चित्तमें शान्ति आती है और वह संसारके सुखोंसे उद्विग्न होकर शाश्वत आत्मिक सुखको प्राप्त करता है ।।५३।। आगे कहते हैं कि आकिंचन्य धर्मके पालकको अद्भुत फलकी प्राप्ति होती है 'मैं अकिंचन हैं इस पहले कभी भी न जाने हए मार्गमें भावक-भावरूपसे प्रवृत्ति करनेवाला साधु आनन्दसे भरपूर और पहले कभी भी प्राप्त न हुई, टाँकीसे उकेरी हुईके समान ज्ञायकभाव-स्वभाव आत्मज्योतिका अनुभवन करता है ॥५४॥ विशेषाथ-मेरा कुछ भी नहीं है इस प्रकारके भावको आकिंचन्य कहते हैं। शरीर . वगैरह यद्यपि वर्तमान रहते हैं फिर भी उसमें ममत्वको त्यागकर 'यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायसे निवृत्त होना आकिंचन्य है। इस आकिंचन्य भावको भानेसे ही ज्ञायकभावस्वभाव आत्माका अनुभव होता है ॥५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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