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________________ षष्ठ अध्याय ४१९ नाद्याप्यन्त्यमनोः स्वपित्यवरजामर्षाजितं दुर्यशः, प्रादोदोन्मरुभूतिमत्र कमठे वान्तं सकृत् क्रुद्विषम् । दग्ध्वा दुर्गतिमाप यादवपुरों द्वीपायनस्तु क्रुधा, तत्क्रोधं शरिरित्यजत्वपि विराराधत्यरौ पाश्ववत् ॥८॥ अन्त्यमनोः-भरतचक्रिणः । अवरजामर्षाजितं-बाहुबलिविषयकोपोपार्जितम् । प्रादोदोत्प्रकर्षेण पुनः पुनरपि तपतिस्म। अजतु-क्षिपतु मुमुक्षुः । विराराधति--अत्यर्थं पुनः पुनर्वा विराध्यति सति । दुःखयतीत्यर्थः ।।८।। ६ इतना काल बीत जाने पर भी भरत चक्रवर्तीके द्वारा अपने छोटे भाई बाहुबलि कुमार पर किये गये क्रोधसे अर्जित अपयश लुप्त नहीं हुआ है, बराबर छाया हुआ है। इसी लोकमें केवल एक बार अपने बड़े भाई कमठपर वमन किये गये क्रोधरूपी विषने पार्श्वनाथके पूर्वभवके जीव मरुभूतिको बार बार अत्यन्त सन्तप्त किया । द्वीपायन नामक तपस्वी क्रोधसे द्वारिका नगरीको जलाकर नरकमें गया। अतः किसी शत्रुके द्वारा अपकार किये जानेपर भी क्रोधको शत्रु मानकर पार्श्वनाथ स्वामीकी तरह छोड़ देना चाहिए, क्रोधके प्रतिकारके लिए . क्रोध नहीं करना चाहिए ||८|| विशेषार्थ-ग्रन्थकारने क्रोधका बुरा परिणाम दिखाने के लिए लोकमें और शास्त्रों में प्रसिद्ध तीन दृष्टान्त दिये हैं। प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवके एकसौ एक पुत्र थे। सबसे बड़े पुत्र प्रथम चक्रवती सम्राट् भरत थे। भगवान्के प्रव्रजित होनेपर भरत अयोध्याके स्वामी हुए और उनसे छोटे बाहुबलिकुमारको पोदनपुरका राज्य मिला । जब भरत दिग्विजय करके अयोध्यामें प्रवेश करने लगे तो चक्ररत्न मार्गमें रुक गया। निमित्तज्ञानियोंने बतलाया कि आपके भाई आपकी आज्ञामें नहीं हैं इसीसे चक्ररत्न रुक गया है। भाइयोंके पास दूत भेजे गये। बाहुबलीने आज्ञा न मानकर युद्ध स्वीकार किया । मन्त्रियोंने दोनों भाइयोंके मध्यमें जल युद्ध, दृष्टि युद्ध और मल्ल युद्ध होनेका निर्णय किया। तीनों युद्धोंमें भरतकी हार हुई तो क्रोधमें आकर भरतने अपने छोटे भाईपर चक्रसे प्रहार किया। कन्तु देविोपनीत चक्र अपने सगे कटुम्बियोंपर तथा मोक्षगामी जीवोंपर प्रहार नहीं करता। फलतः चक्ररत्न बाहुबलीकी तीन प्रदक्षिणा देकर उनके हस्तगत हो गया। समस्त सेना और जनसमूहने सम्राट भरतके इस कार्यकी निन्दा की जो आज भी शास्त्रोंमें निबद्ध है। पोदनपुर नगरमें एक ब्राह्मणके दो पुत्र थे। बड़े पुत्रका नाम कमठ और छोटेका नाम मरुभूति था । राजाने मरुभूतिको अपना मन्त्री नियुक्त किया। एक बार राजा अपने मन्त्री मरुभूतिके साथ दिग्विजयके लिए बाहर गया। पीछे कमठने अपने छोटे भाई मरुभूतिकी पत्नीपर आसक्त होकर उसके साथ दुराचार किया। जब राजाके कानों तक यह समाचार । पहँचा तो उन्होंने कमठका मुँह काला करके देशसे निकाल दिया। कमठ एक पर्वत पर खड़े होकर तपस्या करने लगा। एक बार मरुभूति उसके पास क्षमा माँगने गया। कमठ दोनों हाथोंमें शिला लेकर तपस्या करता था । जैसे ही मरुभूतिने उसे नमस्कार किया, कमठने उसपर शिला पटक दी। दोनों भाइयों में यह वैरकी इकतरफा परम्परा कई भवों तक चली। जब मरुभूति पार्श्वनाथ तीर्थकरके भवमें अहिक्षेत्रमें तपस्या करते थे तो कमठ व्यन्तर योनिमें जन्म लेकर उधरसे जाता था। पूर्व वैरका स्मरण आते ही उसने पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग किया । तब पार्श्वनाथको केवलज्ञान हुआ और इस तरह इस वैरका अन्त हुआ। १. -नरुपतपतिस्म भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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