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________________ ४१८ धर्मामृत ( अनगार) प्राक्-पूर्वभवे । अस्मिन्-इह भवे । क्रूरं-अवश्यभोग्यकटुफलत्वादत्युग्रम् । आनन्-चर्मयष्ट्यादिना ताडयन् । वार्य:-निषेधुं शक्यः ॥६॥ अथ परैः प्रयुक्ते सत्याक्रोशादी क्रोधनिमित्त चित्तं प्रसादयतः स्वेष्टसिद्धिमाचष्टेदोषो मेऽस्तीति युक्तं शपति शपति वा तं विनाऽज्ञः परोक्षे, दिष्टया साक्षान्न साक्षादथ शपति न मां ताडयेत्ताडयेद्वा। नासून मुष्णाति तान्वा हरति सुगतिदं नैष धर्म ममेति, स्वान्तं यः कोपहेतौ सति विशदयति स्याद्धि तस्येष्टसिद्धिः ॥७॥ दोषः-नग्नत्वाशुचित्वामङ्गलत्वादि । एतच्चात्मनि दोषसद्भावानुचिन्तनम् । शपति वा तं विना . ९ इति पुनस्तदभावचिन्तनम् । दिष्ट्या-वर्धामहे । इष्टसिद्धि-क्षमाया हि व्रतशीलपरिरक्षणमिहामुत्र च दुःखानभिष्वङ्गः सर्वस्य जगतः सन्मान-सत्कारलाभ-प्रसिद्धयादिश्च गुणः स्यात् ॥७॥ अथ क्रोधस्य दुःकीर्तिदारुणदुःखहेतुत्वं दृष्टान्तेषु स्पष्टयन् दूरतस्त्याज्यत्वमुपदिशति विशेषार्थ-पहले कहा है कि अपकार करनेवालेके अपकारका बदला चुकानेकी शक्ति होते हुए भी जो क्षमा करता है वही क्षमाशील है। अपनी कमजोरीके कारण प्रतिकार न कर सकनेसे क्षमाभाव धारण करना क्षमा नहीं है वह तो कायरता है। ऐसे कायर पुरुष मनमें बदलेकी भावना रखते हैं और ऊपरसे क्षमा दिखलाते हैं। जिन शासनमें इसे क्षमा नहीं कहा है। अपकारकर्ताके प्रति किंचित् भी दुर्भाव न रखते हुए जो उसके प्रति क्षमाभाव होता है वही सच्चा क्षमाभाव है। जब कोई हमारा बुरा करता है तो मनमें उसके प्रति रोष आता है । उसी रोषके निवारणके लिए ऊपरके विचार प्रदर्शित किये हैं। ऐसे विचारोंसे ही उत्पन्न होते रोषको रोका जा सकता है ॥६॥ आगे कहते हैं कि दूसरोंके गालियाँ आदि बकने पर भी जो अपने चित्तको प्रसन्न रखते हैं उन्हें ही इष्टकी प्राप्ति होती है यदि कोई नग्न साधुको गाली देता है कि यह नंगा है, मैला है, अशुभ है तो साधु विचार करता है कि मैं क्या हूँ, स्नान नहीं करता हूँ-ये दोष मेरेमें हैं यह गलत नहीं कहता। यदि वे दोष साधुमें न हों तो साधु विचारता है कि यह अज्ञानवश मुझे दोष लगाता है। यदि कोई परोक्षमें निन्दा करता है तो वह विचारता है कि भाग्यसे मेरे परोक्षमें ही गाली देता है प्रत्यक्षमें तो नहीं देता। यदि कोई प्रत्यक्ष में अपशब्द कहता है तो वह विचारता है कि यह मुझे गाली ही देता है मारता तो नहीं है। यदि कोई मारे तो सोचता है मारता ही है प्राण तो नहीं लेता। यदि कोई ज्ञानसे मारता हो तो विचारता है कि प्राण ही तो लेता है सद्गति देनेवाले मेरे धर्मको नहीं हरता। इस प्रकार क्रोधके निमित्त मिलने पर जो साधु अपने मनमें प्रसन्न रखता है उसीको इष्टकी प्राप्ति होती है। अर्थात् क्षमाभाव धारण करनेसे व्रत और शीलकी रक्षा होती है, इस लोक और परलोक सम्बन्धी दुःखोंसे छुटकारा होता है तथा लोगोंसे सन्मान मिलता है ।।७॥ ___क्रोध अपयश और दारुण दुःखोंका कारण है यह बात दृष्टान्तोंके द्वारा स्पष्ट करते हुए उसे दूरसे ही छोड़नेका उपदेश करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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