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________________ धर्मामृत ( अनगार) अथ दशलक्षणं धर्म व्याचष्टे क्रूरक्रोधाधुभवाङ्गप्रसङ्गेऽप्यादत्तेऽद्धा यन्निरीहः क्षमावीन् । शुद्धज्ञानानन्दसिद्धचे दशात्मा ख्यातः सम्यग् विश्वविद्भिः सधमः ।।२।। क्रूराः-दुःखदा दुर्निवारा वा। अङ्गानि कारणानि । आदत्ते-(स्वी-)करोति । अद्धाव्यक्तं झटिति वा । निरीहः-लाभाद्यनपेक्षः । क्षमा-क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां सन्निधानेऽपि कालुष्याभावः ।।२।। अथ कषायाणामपायभूयस्त्वातिदुर्जयत्वप्रकाशनपुरस्सरं जेयत्वमुपदर्थ्य तद्विजये परं स्वास्थ्यमावेदयति जीवन्तः कणशोऽपि तत्किमपि ये घ्नन्ति स्वनिध्नं मह स्ते सद्भिः कृतविश्वजीवविजया जेयाः कषायद्विषः । यन्निर्मूलनकर्मठेषु बलवकर्मारिसंघाश्चिता मासंसारनिरूढबन्धविधरानोत्क्राथयन्ते पुनः॥३॥ स्वनिघ्नं-स्वाधीनम् । चितां-चेतनानाम् । कर्मणि षष्ठी । निरूढानि निर्वाहितानि । नोत्क्राथयन्ते-न हिंसन्ति ॥३॥ जात वृक्ष रूप तीन रत्नोंके माहात्म्यके अतिशयके आविर्भावसे गर्वित होता है, अपना बड़प्पन अनुभव करता है वैसे ही तप रत्नत्रयरूप परिणत आत्माके घाति और अघाति कर्मोंका क्षय करने में समर्थ शक्त्यतिशयके द्वारा अपना उत्कर्ष प्रकट करता है। इस तरह तप समुद्रके तुल्य है उसका अवगाहन करना चाहिए ॥१॥ दश लक्षण धर्मको कहते हैं दुःखदायक अथवा दुर्निवार क्रोध आदिकी उत्पत्तिके कारणोंके उपस्थित होनेपर भी सांसारिक लाभ आदिकी अपेक्षा न करके शुद्ध ज्ञान और आनन्दकी प्राप्ति के लिए साधु जो क्षमा, मार्दव आदि आत्म परिणामोंको तत्काल अपनाता है उसे सर्वज्ञ देवने सच्चा धर्म कहा है । उस धर्मके दस रूप हैं ॥२॥ विशेषार्थ-क्रोधकी उत्पत्तिके निमित्त मिलने पर भी मनमें कलुषताका उत्पन्न न होना क्षमा है। इसी तरह मार्दव आदि दस धर्म हैं। उनको जो आत्मिक शुद्ध ज्ञान और सुखकी प्राप्तिके उद्देशसे अपनाता है वह धर्मात्मा है ॥२॥ कषाय बुराईका घर है, अत्यन्त दुर्जय है यह बतलाते हुए उन्हें जीतना शक्य है तथा उनको जीतने पर ही आत्माका परम कल्याण होता है यह बतलाते हैं जो कणमात्र भी यदि जीवित हों तो आत्माके उस अनिर्वचनीय स्वाधीन तेजको नष्ट कर देती हैं और जिन्होंने संसारके सब जीवों पर विजय प्राप्त की है, किन्तु जो उनका भूलसे विनाश करने में कर्मठ होते हैं उन्हें अनादि संसारसे लेकर परतन्त्रताका दुःख भुगानेवाले बलवान् कर्म शत्रुओंके समूह भी पुनः उत्पीड़ित नहीं कर सकते, उन कषायरूपी शत्रुओंको जीतना चाहिए ॥३॥ विशेषार्थ-संसारकी जड़ कषाय है। कषायके कारण ही यह जीव अनादिकालसे संसारमें भटकता फिरता है । कषायने सभी जीवोंको अपने वश में किया है इसलिए कषायोंका जीतना बहुत ही कठिन है। किन्तु जो इन्हें जड़मूलसे उखाड़ फेंकनेके लिए कमर कस लेते हैं उनका संसार बन्धन सर्वदाके लिए टूट जाता है। इसलिए मुमुक्षुको कषायोंको जीतना चाहिए । उनको जीते बिना संसारसे उद्धार असम्भव है ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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