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________________ षष्ठ अध्याय अथैवमुक्तलक्षणरत्नत्रयात्मनि मुक्तिवर्मनि महोद्योगमनुबद्धमनसां तापत्रयोच्छेदाथिनां साधूनां सम्यक्तपआराधनोपक्रमविधिमभिधत्ते दृग्वज्रद्रोण्युपध्नेऽद्भुतविभववृषद्वीपदी स्फुटानु _प्रेक्षातीर्थे सुगुप्तिवतसमितिवसुभ्राजि बोधाब्जराजि। मग्नोन्मग्नोमिरत्नत्रयमहिमभरव्यक्तिदृप्तेऽभियुक्ता, मज्जन्त्विच्छानिरोधामृतवपुषि तपस्तोयधौ तापशान्त्यै ॥१॥ उपघ्नः-आश्रयः । वृषः-धर्मः। तीर्थ-प्रवेशघट्टः । वसूनि-रत्नानि । अब्जः-चन्द्रः । मग्नोन्मग्नोमि-मग्नास्तिरोभूताः स्वकार्यकरणाक्षमाः उन्मग्नोर्मय उद्भूतपरीषहा यत्र, पक्षे मग्नाः केचिन्निमीलिताः केचिच्च उन्मग्ना उन्मीलिता ऊर्मयस्तरङ्गा यत्र । रत्नत्रयं निश्चयमोक्षमार्गोऽत्र । व्यक्तिःआविर्भावः । तापशान्त्ये-मानस-वाचनिक-कायिकानां सहजशारीरागन्तूनां वा दुःखानामुच्छेदार्थम् ॥१॥ इस प्रकार रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्गमें सतत महान् उद्योगके लिए दृढ़ निश्चयी और शारीरिक, वाचनिक तथा कायिक या स्वाभाविक, शारीरिक और आगन्तक दःखोंके विनाश इच्छुक साधुओंके सम्यक् तप आराधनाके उपक्रमकी विधि कहते हैं __ मोक्षमार्गमें नित्य उद्योगशील साधुओंको शारीरिक, वाचनिक, मानसिक तापकी शान्तिके लिए अथवा सहज शारीरिक और आगुन्तक दुःखोंके विनाशके लिए तपरूपी समुद्रमें स्नान और अवगाहन करना चाहिए। वस्तुतः तप समुद्र के समान है। जैसे समुद्रमें अवगाह करना कठिन है वैसे ही तपका अवगाहन भी कठिन है। अमृत अर्थात् जल समुद्रका शरीर है। इसी तरह मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाली इच्छाका निरोध भी अमृतके तुल्य है क्योंकि वह अमृतकी तरह सांसारिक संतापकी शान्तिका कारण है। यह इच्छा निरोध रूप अमृत ही तपका शरीर है। उसीमें अवगाहन करनेसे तापकी शान्ति हो सकती है। जैसे समुद्रका आश्रय वज्रमय नाव है। वज्रमय नावके द्वारा ही समुद्र में अवगाहन किया जाता है, उसी तरह तपका आश्रय सम्यग्दर्शन रूपी नाव है। सम्यग्दर्शनके विना सम्यक् तपमें उतरना शक्य नहीं है। जैसे समुद्रमें दीप होते हैं और वे आश्चर्यकारी विभूतिसे युक्त होते हैं, उसी तरह आश्चर्यकारी विभूतिसे सम्पन्न उत्तम क्षमा आदि दश धर्म तप रूपी समुद्रके द्वीप हैं, उनसे वह प्रकाशमान होता है। जैसे समुद्रमें प्रवेश करने के लिए तीर्थ अर्थात् घाट होते हैं. उसी तरह तप रूपी समुद्र में प्रवेश करने के लिए अनित्य आदि बारह भावना तीर्थ है । इन बारह भावनाओंके सतत चिन्तनसे मुमुक्षु तपके भीतर प्रवेश करता है। जैसे समुद्र में रत्न होते हैं, उसी तरह सम्यग् गुप्ति समिति व्रत वगैरह तप रूपी समुद्रके रत्न हैं, उनसे वह शोभित होता है। तथा जैसे समुद्र चन्द्रमासे शोभित होता है। वैसे ही तप ज्ञानसे शोभित होता है। तथा जैसे समुद्र में कुछ तरंगें उन्मीलित और कुछ तरंगें निमीलित होती हैं उसी तरह तपमें उत्पन्न हुई परीषह धैर्य भावनाके बलसे तिरोभूत हो जाती है अपना कार्य करने में असमर्थ होती हैं। तथा जैसे समुद्र ऐरावत हाथी, कौस्तुभमणि और पारि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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