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________________ ४१२ धर्मामृत ( अनगार ) अथ द्रव्यभावशुद्धयोरन्तरमाह द्रव्यतः शुद्ध मप्यन्नं भावाशुद्धया प्रदुष्यते। भावो ह्यशद्धो बन्धाय शद्धो मोक्षाय निश्चित:॥६७॥ द्रव्यतः शुद्धमपि, प्रासुकशुद्धमपीत्यर्थः । उक्तं च 'प्रगता असवो यस्मादन्नं तद्रव्यतो भवेत् । प्रासुकं किं तु तत्स्वस्मै न शुद्धं विहितं मतम् ॥' [ ] भावाशुद्धया-मदर्थं साधुकृतमिदमिति परिणामदृष्ट्या । अशुद्ध:--रागद्वेषमोहरूपः ॥६७॥ अथ परार्थकृतस्यान्नस्य भोक्तुरदुष्टत्वं दृष्टान्तेन दृढयन्नाह योक्ताऽधःकमिको दुष्येन्नात्र भोक्ता विपर्ययात् । मत्स्या हि मत्स्यमदने जले माद्यन्ति न प्लवाः ॥६॥ योक्ता--अन्नादेर्दाता। अधःकर्मिक:-अधःकर्मणि प्रवृत्तः । हेतुनिर्देशोऽयम् । दुष्येत्-दोषैरुप१२ लिप्येत् । भोक्ता-संयतः । विपर्ययात्---अधःकर्मरहितत्वादित्यर्थः । माद्यन्ति--विह्वलीभवन्ति । प्लवा:-मण्डूकाः । उक्तं च-- 'मत्स्यार्थं (प्रकृते ) योगे यथा माद्यन्ति मत्स्यकाः । १५ न मण्डूकास्तथा शुद्धः परार्थं प्रकृते यतिः॥ अधःकर्मप्रवृत्तः सन् प्रासुद्रव्येऽपि बन्धकः । अधःकर्मण्यसौ शुद्धौ यतिः शुद्धं गवेषयेत् ॥' [ वहाँसे मनुष्य होकर तप करके मोक्ष पाता है। इसमें दान ग्रहण करनेवाले मुनिका कुछ भी कर्तृत्व नहीं है। मुनि तो केवल अवलम्ब मात्र है । मिथ्यादृष्टि दाता भी दानके फलस्वरूप इष्ट विषयोंको प्राप्त करता है ॥६६।। द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धिमें अन्तर कहते हैं द्रव्यसे शुद्ध भी भोजन भावके अशुद्ध होनेसे अशुद्ध हो जाता है; क्योंकि अशुद्ध भावबन्धके लिए और शुद्ध भाव मोक्षके लिए होते हैं यह निश्चित है ॥६॥ _ विशेषार्थ-जिस भोजनमें जीव-जन्तु नहीं होते वह भोजन द्रव्य रूपसे प्रासुक होता है । किन्तु इतनेसे ही उसे शुद्ध नहीं माना जाता। उसके साथमें दाता और ग्रहीताकी भावशुद्धि भी होना आवश्यक है । यदि दाताके भाव शुद्ध नहीं हैं तो भी ठीक नहीं है । और मुनि विचारे कि इसने मेरे लिए अच्छा भोजन बनाया है तो मुनिके भाव शुद्ध नहीं है क्योंकि मुनि तो अनुद्दिष्ट भोजी होते हैं । अपने लिए बनाये गये आहारको ग्रहण नहीं करते। अतः द्रव्यशुद्धिके साथ भाव शुद्धि होना आवश्यक है ॥६॥ दूसरेके लिए बनाये गये भोजनको ग्रहण करनेवाला मुनि दोषरहित है इसे दृष्टान्तके द्वारा दृढ़ करते हैं जो आहारदाता अधःकर्ममें संलग्न होता है वह दोषका भागी होता है । उस आहारको ग्रहण करनेवाला साधु दोषका भागी नहीं होता; वह अधःकर्ममें संलग्न नहीं हैं । क्योंकि योग विशेषके द्वारा जिस जलको मछलियों के लिए मदकारक बना दिया जाता है उस जलमें रहनेवाली मछलियों को ही मद होता है, मेढकोंको नहीं होता ॥६॥ विशेषार्थ-भोजन बनाने में जो हिंसा होती है उसे अधःकर्म कहते हैं। इस अधःकर्मका भागी गृहस्थ होता है क्योंकि वह अपने लिए भोजन बनाता है। उस भोजनको साधु दूस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org'
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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