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________________ पंचम अध्याय ४११ अथ विधिप्रयुक्तभोजनाच्च परोपकारं दर्शयन्नाह यत्प्रतं गृहिणात्मने कृतमपेतैकाक्षजीवं त्रसै निर्जीवैरपि वजितं तदशनाद्यात्मार्थसिद्धये यतिः। युञ्जन्नुद्धरति स्वमेव न परं किं तहि सम्यग्दृशं, दातारं द्युशिवधिया च सचते भोगैश्च मिथ्यादृशम् ॥६६॥ प्रत्तं-प्रकर्षण प्रतिग्रहादिनवपुण्यलक्षणेन दत्तम् । नवपुण्यानि यथा पडिगहमुच्चट्ठाणं पादोदयमच्चणं च पणमं च । मण वयणकाय सुद्धी एसणसुद्धीय णवविहं पुण्णं ॥ [ वसु. श्रा. २२४ ] गृहिणा-नित्यनैमित्तिकानुष्ठानस्थेन गृहस्थेन ब्राह्मणाद्यन्यतमेन न शिल्प्यादिना । तदुक्तम् 'शिल्पि-कारुक-वावपण्यशम्भलीपतितादिषु । देहस्थिति न कुर्वीत लिङ्गिलिङ्गोपजीविषु ।। दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ॥' [ सो० उपा० ७९०-७९१] धुशिवश्रिया-स्वर्गापवर्गलक्ष्म्या । सचते-सम्बध्नाति तद्योग्यं करोतीत्यर्थः ॥६६॥ विधिपूर्वक किये गये भोजनसे अपना और परका उपकार बतलाते हैं जो भोजन आदि नित्य-नैमित्तिक अनुष्ठान करनेवाले गृहस्थके द्वारा अपने लिए बनाया गया हो और एकेन्द्रिय प्राणियोंसे रहित हो तथा मृत या जीवित दो-इन्द्रिय आदि जीवोंसे भी रहित हो और नवधा भक्ति पूर्वक दिया गया हो, उस भोजनादिको अपने सुख और दुःखकी निवृत्तिके लिए ग्रहण करनेवाला साधु केवल अपना ही उद्धार नहीं करता, सम्यग्दृष्टि दाताको स्वर्ग और मोक्षरूपी लक्ष्मीके योग्य बनाता है और मिथ्यादृष्टि दाताको इष्ट विषय प्राप्त कराता है ॥६६॥ ___ विशेषार्थ-मुनि हर एक दाताके द्वारा दिया गया आहार ग्रहण नहीं करते। सोमदेवसूरिने कहा है-'नाई, धोबी, कुम्हार, लुहार, सुनार, गायक, भाट, दुराचारिणी स्त्री, नीच लोगोंके घरमें तथा मुनियोंके उपकरण बेचकर जीविका करनेवालोंके घरमें मुनिको भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण ही मुनिदीक्षाके योग्य हैं। किन्तु मुनिको आहारदान देनेका अधिकार चारों वर्णोंको है। क्योंकि सभी प्राणियोंको मानसिक, वाचिक और कायिक धर्म पालन करनेकी अनुमति है।' दाताको नवधा भक्तिसे आहार देना चाहिए। वे इस प्रकार हैं अपने द्वार पर साधुके पधारने पर हे स्वामी, ठहरिये ऐसा तीन बार कहकर उन्हें सादर ग्रहण करना चाहिए। फिर उच्चस्थान पर बैठाना चाहिए। फिर जलसे उनके चरण पखारना चाहिए। फिर अष्टद्रव्यसे पूजन करना चाहिए। फिर नमस्कार करना चाहिए । फिर मन शुद्धि, वचन शुद्धि, कायशुद्धि और भोजन शुद्धि प्रकट करनी चाहिए । इन्हें नवपुण्य कहते हैं । इस विधिसे दिये गये दानको स्वीकार करके मुनिका तो उपकार होता ही है, दाताका भी उपकार होता है। मुनिको भक्तिभावसे आहार देनेवाला सम्यग्दृष्टि गृहस्थ स्वयं अपने भावोंसे पुण्य बन्ध करनेसे भोगभूमिमें और स्वर्गमें जन्म लेकर सुख भोगता है । और 1. किन्तु १. नात्स्व प-भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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