SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्याय ४०७ अथ सुखस्मृत्यर्थमुद्देशगाथा लिख्यन्ते 'कागा मिज्झा छद्दी रोधण रुधिरं च अंसुवादं च । जण्हूहेट्ठामरिसं जण्हुवरि वदिक्कमो चेव ॥ णाहिअहोणिग्गमणं पच्चक्खिदसेवणाय जंतुवहो। कागादिपिण्डहरणं पाणीदो पिण्डपडणं च ॥ पाणीए जंतुवहो मांसादीदंसणेय उवसग्गो। पादतर पंचिदियसंपादो भापणाणं च ॥ उच्चारं पस्सवणमभोज्जगिह पवेसणुं तहा पडणं । उपवेसणं सदंसो भूमीसंफास-णिट्ठवणं ॥ उदरक्किमिणिग्गमणं अदत्तगहणं पहार गामदाहो य। पादेण किंचिगहणं करेण वा जं च भूमीदो ॥ एदे अण्णे बहुगा कारणभूदा अभोजणस्सेह । बीहण लोगदुगंछण संजमणिव्वेदणटुं च ॥ मूलाचार, गा. ४९५-५००]॥५८॥ अथाद्वियेन शेषं संगृह्णन्नाह तद्वच्चाण्डालादिस्पर्शः कलहः प्रियप्रधानमृती। भीतिर्लोकजुगुप्सा सधर्मसंन्यासपतनं च ॥१९॥ सहसोपद्रवभवनं स्वभुक्तिभवने स्वमौनभङ्गश्च । संयमनिर्वेदावपि बहवोऽनशनस्य हेतवोऽन्येऽपि ॥६॥ भीतिः-यत्किचिद्भयं पापभयं वा ॥५९॥ अनशनस्य-भोजनवर्जनस्य ॥६०॥ जानेपर ग्रामदाह नामक भोजनका अन्तराय होता है। मुनिके द्वारा भूमिपर पड़े रत्न, सुवर्ण आदिको पैरसे ग्रहण करनेपर पादग्रहण नामक अन्तराय होता है। तथा हाथसे ग्रहण करनेपर हस्तग्रहण नामक बत्तीसवाँ भोजनका अन्तराय होता है। इन अन्तरायोंके होनेपर मुनि भोजन ग्रहण नहीं करते ॥५७-५८॥ इस प्रकार भोजनके बत्तीस अन्तरायोंको कहकर दो पद्योंसे शेष अन्तरायोंका भी ग्रहण करते हैं काकादि नामक बत्तीस अन्तरायोंकी तरह चाण्डाल आदिका स्पर्श, लड़ाई-झगड़ा, प्रिय व्यक्तिको मृत्यु या किसी प्रधान व्यक्तिकी मृत्यु, कोई भय या पापभय, लोकनिन्दा, साधर्मीका संन्यासपूर्वक मरण, अपने भोजन करने के मकानमें अचानक किसी उपद्रवका होना, भोजन करते समय अवश्य करणीय मौनका भंग, प्राणिरक्षा और इन्द्रिय दमनके लिए संयम पालन तथा संसार शरीर और भोगोंसे विरक्ति इसी तरह अन्य बहुत-से कारण भोजन न करनेके होते हैं । अर्थात् यदि राजभय या लोकनिन्दा होती हो तो भी साधु भोजन नहीं करते। इसी तरह अपने संयमकी वृद्धि और वैराग्य भावके कारण भी भोजन छोड़ देते हैं ।।५९-६०॥ ___इस प्रकार अन्तरायका प्रकरण समाप्त होता है। १. रम्मि जीवो सं-मूलाचार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy