SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ ६ ९ १२ १५ १८ ४०६ धर्मामृत (अनगार ) मूत्राख्यो मूत्रशुक्रादेश्चाण्डालादिनिकेतने । प्रवेशो भ्रमतो भिक्षोर भोज्य गृहवेशनम् ॥५३॥ शुक्रादेः - आदिशब्दादर मर्यादेश्च । स्वस्य निर्गम इति वर्तते ॥५३॥ अथ पतनमुपवेशनं संदंशं च त्रीनाह भूमौ मूर्छादिना पाते पतनाख्यो निषद्यया । उपवेशन संज्ञोऽसौ संदंशः श्वादिदंशने ॥५४॥ स्पष्टम् ॥५४॥ अथ भूमिसंस्पर्शं निष्ठीवनमुदरकृमिनिर्गमन मदत्तग्रहणं च चतुरो द्वाभ्यामाह - भूस्पर्शः पाणिना भूमेः स्पर्शे निष्ठीवनाह्वयः । स्वेन क्षेपे कफादेः स्यादुदर क्रिमिनिर्गमः ॥५५॥ उभयद्वारतः कुक्षिक्रिमिनिगमने सति । स्वयमेव ग्रहेऽन्नादेरदत्तग्रह्णाह्वयः ॥५६॥ स्वेन - आत्मना न काशादिवशतः ॥ ५५ ॥ उभयद्वारतः - गुदेन मुखेन वा ॥५६॥ अथ प्रहारं ग्रामदाहं पादग्रहणं करग्रहणं च चतुरो द्वाभ्यामाह - प्रहारोऽस्यादिना स्वस्य प्रहारे निकटस्य वा । ग्रामदाहोऽग्निना दाहे ग्रामस्योद्धृत्य कस्यचित् ॥५७॥ पादेन ग्रहणे पादग्रहणं पाणिना पुनः । हस्तग्रहणमादाने भुक्तिविघ्नोऽन्तिमो मुनेः ॥५८॥ उद्धृत्य - भूमेरुत्क्षिप्य ॥५७॥ अन्तिम : - - द्वात्रिशः । यदि साधुके मूत्र, वीय आदि निकल जाये तो मूत्र या प्रस्रवण नामक अतीचार होता है । भिक्षा के लिए घूमता हुआ साधु चाण्डाल आदिके घर में यदि प्रवेश कर जाये तो अभोज्य गृहप्रवेश नामक अन्तराय होता है ॥ ५३ ॥ पतन, उपवेशन और संदेश नामक अन्तरायोंको कहते हैं- मूर्छा, चक्कर, थकान आदिके कारण साधुके भूमिपर गिर जानेपर पतन नामक अन्तराय होता है । भूमिपर बैठ जानेपर उपवेशन नामक अन्तराय होता है । और कुत्ता आदिके काटने पर संदंश नामक अन्तराय होता है ॥५४॥ भूमिसंस्पर्श, निष्ठीवन, उदरकृमिनिर्गमन और अदत्त ग्रहण नामक चार अन्तरायोंको दो श्लोकोंसे कहते हैं साधुके हाथ से भूमिका स्पर्श हो जानेपर भूमिस्पर्श नामक अन्तराय होता है । खाँसी आदिके बिना स्वयं कफ, थूक आदि फेंकनेपर निष्ठीवन नामक अन्तराय होता है । मुख या गुदामार्ग से पेट से कीड़े निकलनेपर उदरकृमिनिगमन नामक अन्तराय होता है । दाताके दिये बिना स्वयं ही भोजन, औषधि आदि ग्रहण करनेपर अदत्त ग्रहण नामक अन्तराय होता है ।।५५-५६ ।। प्रहार, ग्रामदाह पादग्रहण और करग्रहण नामक चार अन्तरायोंको दो इलोकोंसे कहते हैं स्वयं मुनिपर या निकटवर्ती किसी व्यक्तिपर तलवार आदिके द्वारा प्रहार होनेपर प्रहार नामक अन्तराय होता है । जिस ग्राम में मुनिका निवास हो उस ग्रामके आगसे जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy