SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९४ धर्मामृत ( अनगार) किं च, तुभ्यमहं विद्यामिमां दास्यामीत्याशाप्रदानेन च भुक्त्युत्पादेऽपि स एव दोषः । तथा चोक्तम् 'विज्जा साधितसिद्धा तिस्से आसापदाणकरणेहि। . तिस्से माहप्पेण य विज्जादोसो दु उप्पादो ॥' [ मूलाचार गा. ४५७ ] मन्त्र:...-- सादिविषापहर्ता। अत्रापि मन्त्राशाप्रदानेनेत्यपि व्याख्येयम् । दोषत्वं चात्र लोकप्रतारणजिह्वागुद्धयादिदोषदर्शनात् ॥२५॥ अथ प्रकारान्तरेण तावेवाह विद्या साधितसिद्धा स्यान्मन्त्रः पठितसिद्धकः । ताभ्यां चाहूय तौ दोषौ स्तोइनतो भुक्तिदेवताः ॥२६॥ भुक्तिदेवता:-आहारप्रदव्यन्तरादिदेवान् । उक्तं च 'विद्यामन्त्रैः समाहूय यदानपतिदेवताः । साधितः स भवेदोषो विद्यामन्त्रसमाश्रयः ॥ [ ] ॥२६॥ अथ चूर्णमूलकर्मदोषावाह दोषो भोजनजननं भूषाजनचूर्णयोजनाच्चूर्णः। स्यान्मूलकर्म चावशवशीकृतिवियुक्तयोजनाभ्यां तत् ॥२७॥ उपकार करके आहार आदि ग्रहण करना चिकित्सा दोष है। पिण्डनियुक्तिमें चिकित्सासे रोग प्रतीकार अथवा रोग प्रतीकारका उपदेश विवक्षित है। जैसे, किसी रोगीने रोगके प्रतीकारके लिए साधुसे पूछा तो वह बोला-क्या मैं वैद्य हूँ? इससे यह ध्वनित होता है कि वैद्यके पास जाकर पूछना चाहिए। अथवा रोगीके पूछनेपर साधु बोला-मुझे भी यह रोग हुआ था। वह अमुक औषधिसे गया था। या वैद्य बनकर चिकित्सा करना यह दूसरा प्रकार है । जो साधनासे सिद्ध होती है उसे विद्या कहते हैं और जो पाठ करनेसे सिद्ध होता है उसे मन्त्र कहते हैं । इनके द्वारा आहारादि प्राप्त करनेसे लोकमें साधुपदकी अकीर्ति भी हो सकती है। उसे लोकको ठगनेवाला भी कहा जाता है अथवा 'मैं तुम्हें अमुक विद्या प्रदान करूँगा' ऐसी आशा देकर भोजन प्राप्त करनेपर भी यही दोष आता है । मूलाचार (गा. ६३८) में कहा है-जो साधनेपर सिद्ध होती है उसे विद्या कहते हैं। उस विद्याकी आशा देकर कि मैं तुम्हें यह विद्या दूंगा और उस विद्याके माहात्म्यके द्वारा जो जीवन-यापन करता है उसे विद्योत्पादन नामक दोष होता है ।।२५।। प्रकारान्तरसे उन दोनों दोषोंको कहते हैं जो पहले जप, होम आदिके द्वारा साधना किये जानेपर सिद्ध होती है वह विद्या है। और जो पहले गुरुमुखसे पढ़नेपर पीछे सिद्ध अर्थात् कार्यकारी होता है वह मन्त्र है। उन विद्या और मन्त्रके द्वारा आहार देने में समर्थ व्यन्तर आदि देवोंको बुलाकर उनके द्वारा प्राप्त कराये भोजनको खानेवाले साधुके विद्या और मन्त्र नामक दोष होते हैं ॥२६॥ चूर्ण और मूलकर्म दोषोंको कहते हैं शरीरको सुन्दर बनानेवाले चूर्ण और आँखोंको निर्मल बनानेवाले अंजनचूर्ण उनके अभिलाषी दाताको देकर उससे आहार प्राप्त करना चूर्ण दोष है। जो वशमें नहीं है उसे वशमें करना और जिन स्त्री-पुरुषों में परस्पर में वियोग हुआ है उनको मिलाकर भोजन प्राप्त करना मूलकमं दोष है ॥२७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy