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________________ १२ ३८८ धर्मामृत ( अनगार) पिहितं-पिधानेन कर्दमलाक्षादिना वा संवृतम् । लाञ्छितं नाम बिम्बादिना मुद्रितम् । दोषत्वं चास्य पिपीलिकादिप्रवेशदर्शनात् इति । राजादिभीषितैः-कुटुम्बिकैरिति शेषः । यदा हि संयतानां हि भिक्षाश्रम ३ दृष्ट्वा राजा तत्तुल्यो वा चौरादिळ कुटुम्बिकान् यदि संयतानामागतानां भिक्षादानं न करिष्यथ तदा युष्माकं द्रव्यमपहरिष्यामो ग्रामाद्वा निर्वासयिष्याम इति भीषयित्वा दापयति तदा तदादीयमानमाच्छेद्यनामा दोषः स्यात् । उक्तं च 'संयतश्रममालोक्य भीषयित्वा प्रदापितम् । राजचौरादिभिर्यत्तदाछेद्यमिति कीर्तितम् ।।' [ ] ॥१७॥ अथ मालारोहणदोषमाह निश्रेण्यादिभिरारुह्य मालमादाय दीयते । यद्व्यं संयतेभ्यस्तन्मालारोहण मिष्यते ॥१८॥ माला-गृहोद्धभागम् । दोषत्वं चात्र दातुरपायदर्शनात् ॥१८॥ अथैवमुद्गमदोषान् व्याख्याय साम्प्रतमुत्पादनदोषान् व्याख्यातुमुद्दिशति उत्पादनास्तु धात्री दूतनिमित्ते वनीपकाजीवौ। क्रोधाद्याः प्रागनुनुतिवैद्यकविद्याश्च मन्त्रचूर्णवशाः ॥१९॥ चींटी आदि घुस जाती हैं। तथा राजा आदिके भयसे जो दान दिया जाता है वह अच्छेद्य कहा जाता है ॥१७॥ विशेषार्थ-पिण्ड नियुक्ति (गा. ३४८) में कहा है-'बन्द घोके पात्र वगैरहका मुख खोलनेसे छह कायके जीवोंकी विराधना होती है। तथा साधुके निमित्तसे पीपेका मुँह खोलनेपर उसमें रखे तेल-घीका उपयोग परिवारके लिए क्रय-विक्रयके लिए किया जाता है। इसी तरह बन्द कपाटोंको खोलनेपर भी जीव विराधना होती है यह उद्भिन्न दोष।' आच्छेद्य दोषके तीन भेद किये हैं--प्रभु विषयक, स्वामी विषयक और स्तेन विषयक। यदि कोई स्वामी या प्रभु यतियोंके लिए किसीके आहारादिको बलपूर्वक छीनकर साधुको देता है तो ऐसा आहार यतियोंके अयोग्य है। इसी तरह चोरोंके द्वारा दूसरोंसे बलपूर्वक छीनकर दिया गया आहार भी साधके अयोग्य है ॥१७॥ आगे मालारोहण दोषको कहते हैं__ सीढ़ी आदिके द्वारा घरके ऊपरी भागमें चढ़कर और वहाँसे लाकर जो द्रव्य साधुओंको दिया जाता है उसे मालारोहण कहते हैं ॥१८॥ विशेषार्थ-पिण्डनियुक्ति (गा. ३५७) में मालारोहणके दो भेद किये हैं-जघन्य और उत्कृष्ट । ऊँचे छीके आदिपर रखे हुए मिष्टान्न वगैरहको दोनों पैरोंपर खड़े होकर उचककर लेकर देना जघन्य मालारोहण है और सीढ़ी वगैरहसे ऊपर चढ़कर वहाँसे लाकर देना उत्कृष्ट मालारोहण है ।।१८।। इस प्रकार उद्गम दोषोंका कथन करके उत्पादन दोषोंको कहते हैं उत्पादन दोषके सोलह भेद हैं-धात्री, दूत, निमित्त, वनीपकवचन, आजीव, क्रोध, मान, माया, लोभ, पूर्वस्तवन, पश्चात् स्तवन, वैद्यक, विद्या, मन्त्र, चूर्ण और वश ॥१९|| १. 'उब्भिन्ने छक्काया दाणे कयविक्कए य अहिगरणं । ते चेव कवाडंमि वि सविसेसा जंतुमाईसु' ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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