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________________ ६ पंचम अध्याय ३८७ अथाभिहृतदोषं व्याचष्टे त्रीन् सप्त वा गृहान् पङ्क्त्या स्थितान्मुक्त्वाऽन्यतोऽखिलात् । देशादयोग्यमायातमन्नाद्यभिहृतं यतेः॥१६॥ अन्यतः-उक्तविपरीतगृहलक्षणात् स्वपरप्रामदेशलक्षणाच्च । अभिहृतं हि द्विविधं देशाभिहृतं सर्वाभिहृतं वा । देशाभिहृतं पुनद्विधा-आदृतमनादृतं च । सर्वांभिहृतं तु चतुर्धा स्वग्रामादागतं परग्रामादागतं स्वदेशादागतं परदेशादागतं चेति । यत्र ग्रामे स्थीयते स स्वग्रामः । तत्र पूर्वपाटकादपरपाटकेऽपरपाटकाच्च पूर्वपाटके भोजनादेनयनं स्वग्रामाभिहतम । प्रचरेर्यापथदोषदर्शनात् । एवं शेषमप्यूह्यम् । तथा चोक्तम् 'देशतः सर्वतो वापि ज्ञेयं त्वभिहृतं द्विधा । आदृतानादृतत्वेन स्यादेशाभिहृतं द्विधा ।। ऋजुवृत्त्या त्रिसप्तभ्यः प्राप्तं वेश्मभ्य आदृतम् । ततः परत आनीतं विपरीतमनादृतम् ।।. स्वपरग्रामदेशेषु चतुर्धाभिहृतं परम् । प्राक् पश्चात्पाटकानां च शेषमप्येवमादिशेत् ॥' [ ] ॥१६॥ अथोद्भिन्नाच्छेद्यदोषयोः स्वरूपं विवृणोति पिहितं लाञ्छितं वाज्यगुडायुद्घाटय दीयते। यत्तदुद्धिन्नमाच्छेद्यं देयं राजादिभोषितैः ॥१७॥ अनीशार्थ दिया है, पीछे अथवा करके अनिसृष्ट नाम दिया है। अनिसृष्टका अर्थ होता है निषिद्ध । पं. आशाधरजीने निषिद्ध नाम दिया है (श्वे. पिण्डनियुक्ति में भी अनिसृष्ट नाम ही है । ईश्वरके द्वारा निसृष्ट किन्तु अनीश्वरके द्वारा अनिसृष्ट या अनीश्वरके द्वारा निसृष्ट और ईश्वरके द्वारा अनिसृष्ट वस्तुका ग्रहण निषिद्ध नामक दोष है ॥१५॥ अभिहृत दोषको कहते हैं पंक्तिरूपसे स्थित तीन या सात घरोंको छोड़कर शेष सभी स्थानोंसे आया हुआ भोजन आदि मुनिके अयोग्य होता है। उसको ग्रहण करना अभिहत दोष है॥१६॥ विशेषार्थ-मूलाचार (६।१९) में प्राकृत शब्द अभिहड है । संस्कृत टीकाकारने उसका संस्कृत रूप 'अभिघट' रखा है। और इस तरह इस दोषको अभिघट नाम दिया है जो उचित प्रतीत नहीं होता । अभिहडका संस्कृत रूप अभिहृत या अभ्याहृत होता है। वही उचित है । उसीसे उसके अर्थका बोध होता है । मूलाचारमें अभिहृतके दो भेद किये हैंदेशाभिहत और सर्वाभिहृत । जिस घरमें मुनिका आहार हो उस घरकी सीधी पंक्तिमें स्थित तीन या सात घरोंसे आया हुआ भोजन आदि ग्रहण योग्य होता है। यदि सीधी पंक्तिके तीन या सात घरोंके बादके घरोंसे भोजनादि आया हो या सीधी पंक्तिसे विपरीत घरोंसे आया हो, या यहाँ-वहाँके घरोंसे आया हो तो वह ग्रहण योग्य नहीं होता। श्वे. पिण्डनियुक्तिमें इस दोषका नाम अभ्याहृत है। और उसका स्वरूप यही है। अभ्याहृतका अर्थ होता है सब ओरसे लाया गया। ऐसा भोजन अग्राह्य होता है ।।१६।। आगे उद्भिन्न और अच्छेद्य दोषका स्वरूप कहते हैं जो घी, गुड़ आदि द्रव्य किसी ढक्कन वगैरहसे ढका हो या किसीके नामकी मोहर आदिसे चिह्नित हो और उसे हटाकर दिया जाता है वह उद्भिन्न कहा जाता है । उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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