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________________ namrunaaaaaaaaaa धर्मामृत ( अनगार) यताङ्ग-यतस्य सावधविरतस्य योगवयवायमानस्याङ्गं शरीरम् । अम्बा:-मातृरिव । यथा जनन्यः पुत्रशरीरं जनयन्ति पालयन्ति शोधयन्ति च तथैताः सम्यकचारित्रलक्षणं यतिगात्रमित्यर्थः । प्रवचन३ सवित्रीः-प्रवचनस्य रत्नत्रयस्य मातः ॥१५३॥ अथ गुप्तिसामान्यलक्षणमाह गोप्त रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षतः। पापयोगान्निगृह्णीयाल्लोकपङ्क्त्यादिनिस्पृहः ॥१५४॥ गोप्तुंरक्षितुम् । प्रतिपक्षतः-मिथ्यादर्शनादित्रयात्कर्मबन्धाद्वा । पापयोगान् -व्यवहारेण पापाः पापार्थाः निश्चयेन च शुभाशुभकर्मकारणत्वान्निन्दिता योगा मनोवाक्कायव्यापारास्तान् । यदाह 'वाक्कायचित्तजानेकसावधप्रतिषेधकम् । त्रियोगरोधकं वा स्याद्यत्तत् गुप्तित्रयं मतम् ॥' [ ज्ञानार्णव १८।४ ] अहिंसारूप अथवा हिंसाविरति आदि पाँच रूप सम्यक् चारित्र सावद्ययोगसे विरत साधुका अथवा योगके लिए प्रयत्नशील साधुका शरीर है। उसे उत्पन्न करनेके लिए, रक्षण करने के लिए और निर्मल करनेके लिए माताके तुल्य होनेसे आगमके ज्ञाता पुरुष तीन गुप्तियों और पाँच समितियोंको माता मानते हैं। इसलिए व्रतोंका पालन करनेवालोंको इष्ट अर्थकी सिद्धि के लिए इन आठ प्रवचन माताओंकी आराधना करना चाहिए ॥१५३।। विशेषार्थ-जैसे माताएँ पुत्रोंके शरीरको जन्म देती हैं, उनका पालन करती हैं, रोगादि होने पर शोधन करती हैं उसी तरह गुप्ति और समितियाँ मुनिके सम्यक् चारित्ररूप शरीरको जन्म देती हैं, पालन करती हैं और शुद्ध करती हैं। गुप्ति और समितियोंके बिना सम्यक्चारित्रकी उत्पत्ति, रक्षा और निर्दोषता सम्भव नहीं है। इसीलिए आगममें इन्हें रत्नत्रयरूप प्रवचनकी माता कहा है। अतः सामायिक या छेदोपस्थापना चारित्रके आराधक साधुको इनका पालन सावधानतापूर्वक अवश्य करना चाहिए। इनमें प्रमादी होनेसे महावतकी रक्षाकी बात तो दूर, उनका जन्म ही सम्भव नहीं है ।।१५३।। गुप्तिका सामान्य लक्षण कहते हैं लोगोंके द्वारा की जानेवाली पूजा, लाभ और ख्यातिकी इच्छा न करनेवाले साधुको सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयस्वरूप अपनी आत्माको मिथ्यादर्शन आदिसे रक्षा करने के लिए पापयोगोंका निग्रह करना चाहिए ॥१५४॥ विशेषार्थ--गुप्ति शब्द 'गोप्' धातुसे बना है जिसका अर्थ रक्षण है। अर्थात् जिससे संसारके कारणोंसे आत्माकी रक्षा होती है उसे गुप्ति कहते हैं। इसी अर्थको दृष्टि में रखकर ग्रन्थकारने गुप्ति का सामान्य लक्षण कहा है कि साधुको लोकपूजा आदि लौकिक विषयोंकी इच्छा न करके रत्नत्रयस्वरूप आत्माको रत्नत्रयके प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रसे बचानेके लिए पापयोगोंका निग्रह करना चाहिए। व्यवहारनयसे पाप है पापरूप कार्य और निश्चयनयसे पाप है योग अर्थात् मन-वचन-कायका व्यापार, क्योंकि वह शुभ और अशुभ कर्मोंके आस्रवका कारण है। कहा है-'मन-वचन-कायसे उत्पन्न अनेक पापसहित प्रवृत्तियोंका प्रतिषेध करनेवाली अथवा तीनों योगोंकी रोधक तीन गुप्तियाँ मानी गयी हैं।' १. योगय वा यतमान-भ. कु.च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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