SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 400
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय ३४३ इतरेषु-आचार्यादिषु त्रिषु मध्ये । अहंमहोमयं-आत्मतेजोरूपम् । उक्तं च 'लवणं व सलिलजोए झाणे चित्तं विलीयए जस्स। ___ तस्स सुहासुहडहणो अप्पा अणलो पयासेइ ।' [ आरा. सार, ८४ गा.] अहो-भो महाव्रतपालनोद्यता मुनयः । सिद्धः-शुद्धनिश्चयवादिनां नियूंढमहासरत्वेन प्रसिद्धः। तथा चोक्तम्-'स च मुक्तिहेतुरिद्धः' इत्यादि ॥१५२॥ एवं विशेषसामान्यभावना रात्रिभोजनवर्जनपरिकराणि व्रतान्यभिधाय सांप्रतं गुप्तिसमितीयाख्यातुका- ६ मस्तासां प्रवचनमातृत्वोपपत्तिप्रतिपादनपूर्वकं व्रतोद्यतानामाराध्यत्वमुपदिशति अहिंसां पश्चात्म व्रतमथ यताङ्गजनयितु, सवत्तं पात वा विमलयितमम्बाः श्रतविदः। विदुस्तिस्रो गुप्तोरपि च समितीः पञ्च तदिमाः, श्रयन्त्विष्टायाष्टौ प्रवेचनसवित्रीवतपराः ॥१५३॥ 'यतः निश्चय और व्यवहाररूप दोनों प्रकारका निर्दोष मोक्षमार्ग ध्यानकी साधनामें प्राप्त होता है । अतः हे सुधीजनो! सदा ही आलस्यको त्याग कर ध्यानका अभ्यास करो।' ध्यानसे मनुष्य तन्मय होकर उसी रूप हो जाता है। कहा है _ 'जो आत्मा जिस भावरूप परिणमन करता है वह उस भावके साथ तन्मय हो जाता है। अतः अर्हन्तके ध्यानमें तन्मय हुआ आत्मा स्वयं भावअन्त हो जाता है । आत्माके स्वरूपको जाननेवाला आत्माको जिस भावसे जिस रूपमें ध्याता है उसके साथ वह तन्मय हो जाता है जैसे स्फटिक मणि जिस-जिस रंगवाली उपाधिके साथ सम्बन्ध करती है उस-उस रंगवाली हो जाती है। अतः अहन्त और सिद्धके स्वरूपको जानकर उनका ध्यान करना चाहिए। दूसरी बात यह है कि ध्यान ही वह अग्नि है जिसमें शुभ और अशुभ कर्म जलकर भस्म होते हैं। कहा है-'जिस योगीका चित्त ध्यानमें उसी तरह विलीन हो जाता है जैसे नमक पानीमें लय हो जाता है उसके शुभ और अशुभ कर्मोंको जला डालनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है। अतः महाव्रतोंके पालनमें तत्पर मुनिको ध्यानका अभ्यासी होना चाहिए।' इस प्रकार महाव्रतोंका प्रकरण समाप्त होता है ॥१५२॥ इस प्रकार महाव्रतोंका और उनके सहकारी विशेष और सामान्य भावनाओंका तथा रात्रिभोजन-त्यागका कथन करके अब गुप्ति और समितिका व्याख्यान करना चाहते हैं। अतः उन्हें आगममें प्रवचनकी माता क्यों कहा है इसकी उपपत्ति बताते हुए व्रतोंमें तत्पर साधुओंको उनकी आराधना करनेका उपदेश देते हैं१. महाव्रतभरत्वेन भ. कु. च.। २. उत्तराध्ययनमें कहा है कि इन आठोंमें सम्पूर्ण द्वादशांग अवतरित होता है इसलिए इन्हें प्रवचनमाता कहा है-'अट्ठसु वि समिईसु अ दुवालसंग अयोअरई जम्हा । तम्हा पवयणमाया अज्झयणं होइ नायव्वे ॥ ३. परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अहंयानाविष्टो भावार्हन स्यात् स्वयं तस्मात् ।। येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यत्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ।। -तत्त्वानुशा. १९०-१९१ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy