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________________ ३ ६ ९ १२ १५ ३२४ धर्मामृत (अनगार ) तद्गेहाद्युपधौ ममेदमिति संकल्पेन रक्षार्जनासंस्कारादिदुरोहितव्यतिकरे हिंसादिषु व्यासजन् । दुःखोद्गारभरेषु रागविधुरप्रज्ञः किमप्याहर त्यही यत्प्रखरेऽपि जन्मदहने कष्टं चिराज्जीर्यति ॥ १३४॥ उपधि: -- परिग्रहः । प्रखरे - सुतीक्ष्णे ।। १३४॥ अथानाद्यविद्या निबन्धनं चेतनपदार्थेषु रागद्वेषप्रबन्धं विदधानस्य कर्मबन्धक्रियासमभिहारमनभि नन्दन्नाह आसंसारमविद्यया चलसुखाभासानुबद्धाशया, नित्यानन्दसुधामय स्वसमयस्पर्शच्छिदभ्याशया । इष्टानिष्ट विकल्पजालजटिलेष्वर्थेषु विस्फारितः क्रामन् रत्यरती मुहुर्मुहुरहो बाबध्यते कर्मभिः ॥ १३५ ॥ स्वसमयः -- शुद्धचिद्र पोपलम्भः । अभ्यासः - सामीप्यम् । विस्फारितः - प्रयत्नावेशमापादितः । बाबध्यते - भृशं पुनः पुनर्वा बध्यते । तथा चोक्तम् 'कादाचित्को बन्धः क्रोधादेः कर्मणः सदा सङ्गात् । • नातः क्वापि कदाचित्परिग्रहग्रहवतां सिद्धिः ॥' [ विद्भियकाले मोहो दुर्जय इति च चिन्तयति - गृहस्थ घर आदिकी तृष्णासे व्याकुल होकर घर खेत आदि परिग्रह में 'ये मेरे हैं' इस प्रकारके संकल्पसे उनके रक्षण, अर्जन, संस्काररूप दुश्चेष्टाओंके जमघटमें पड़कर अत्यन्त दुःखदायी हिंसा आदि में विविध प्रकारसे आसक्त होता है और उससे ऐसे न कह सकने योग्य पापका बन्ध करता है जो संसाररूपी तीव्र अग्निमें भी लम्बे समयके बाद बड़े कष्टसे निर्जराको प्राप्त होता है । अर्थात् गृह आदि परिग्रह में ममत्वभाव होनेसे गृहस्थ उनकी रक्षा करता है, नये मकान बनवाता है, पुरानोंकी मरम्मत कराता है और उसीके संकल्पविकल्पों में पड़ा रहता है । उसके लिए उसे मुकदमेबाजी भी करनी पड़ती है, उसमें मार-पीट भी होती है । इन सब कार्यों में जो पापबन्ध होता है वह घोर नरक आदिके दुःखों को भोगने पर ही छूटता है ॥१३४॥ | अनादिकालीन अविद्याके कारण चेतन और अचेतन पदार्थों में मनुष्य रागद्वेष किया करते हैं और उससे कर्मबन्धकी प्रक्रिया चलती है अतः उसपर खेद प्रकट करते हैं Jain Education International ] ॥१३५॥ जबसे संसार है तभी से जीवके साथ अज्ञान लगा हुआ है-उसका ज्ञान विपरीत है, उसे ही अविद्या कहते हैं । उस अविद्याके ही कारण यह जीव क्षणिक तथा सुखकी तरह प्रतीत होनेवाले असुखको ही सुख मानकर उसीकी तृष्णामें फँसा हुआ है। तथा उस अविद्याका सम्पर्क भी नित्य आनन्दरूपी अमृतसे परिपूर्ण शुद्ध चिद्र पकी उपलब्धिके किंचित् स्पर्शका भी घातक है । उसी अविद्याके वशीभूत होकर यह जीव यह हमें प्रिय है और हमें अप्रिय है इस प्रकारके इष्ट और अनिष्ट मानसिक विकल्पोंके समूह से जटिल पदार्थों में इष्टकी प्राप्ति और अनिष्ट से बचनेके लिए प्रयत्नशील होता हुआ बारम्बार राग-द्वेष करता है और उससे बारम्बार कर्मोंसे बँधता है ।। १३५|| आगे विचार करते हैं कि मोहकर्मको असमय में जीतना तत्त्वज्ञानियोंके लिए भी कष्टसाध्य है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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