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________________ ३२३ चतुर्थ अध्याय धनादन्नं तस्मादसव इति देहात्ममतयो, मनुं मन्या लब्धं धनमघमशङ्का विदधते । वृषस्यन्ति स्त्रीरप्यदयमशनोद्भिन्नमदना, धनस्त्रीरागो वा ज्वलयति कुजानप्यमनसः ॥१३३॥ देहात्ममतयः--देहे आत्मेति मतिर्येषाम् । मनुमन्या:-लोकव्यवहारोपदेष्टारमात्मानं मन्यमानाः । वषस्यन्ति-कामयन्ते । ज्वलयति-धनस्वीकारे नारीप्रवीचारे च संरम्भयति । यन्नीति:-'अर्थेषपभोग- ६ रहितास्तरवोऽपि साभिलाषा' इति । दृश्यन्ते च मूलोपान्ते निखातं हिरण्यं जटाभिर्वेष्टयन्तः प्ररोहैश्चोपसर्पन्तो वृक्षाः । सुप्रसिद्ध एव वाऽशोकादीनां कामिनीविलासाभिलाषः । तथा च पठन्ति 'सनूपुरालक्तकपादताडितो द्रुमोऽपि यासां विकसत्यचेतनः। तदङ्गसंस्पर्शरसद्रवीकृतो विलीयते यन्न नरस्तदद्भुतम् ॥' अपि च 'यासां सीमन्तिनीनां कुरुवकतिलकाशोकमाकन्दवृक्षाः प्राप्योच्चैविक्रियन्ते ललितभुजलतालिङ्गनादीन् विलासान् । तासां पुर्णेन्दुगौरं मुखकमलमलं वीक्ष्य लीलालसाढयं को योगी यस्तदानों कलयति कुशलो मानसं निर्विकारम् ॥' [ ] ॥१३३॥ १॥ अथ गृहादिमूर्छया तद्रक्षणाद्युपचितस्य पातकस्यातिदुर्जरत्वं व्याहरति'धनसे अन्न होता है और अन्नसे प्राण' इस प्रकारके लोकव्यवहारके उपदेष्टा, अपने शरीरको ही आत्मा माननेवाले अपनेको मनु मानकर धन प्राप्त करने के लिए निर्भय होकर पाप करते हैं। और पौष्टिक आहारसे जब काम सताता है तब निर्दयतापूर्वक स्त्रीभोग करते हैं। ठीक ही है-धन और स्त्रीका राग मनरहित वृक्षोंको भी धन और नारीके सेवनमें प्रवृत्त करता है, मनसहित मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ।।१३३॥ विशेषार्थ-संसार में स्त्री और धनका राग बड़ा प्रबल है। स्त्रीके त्यागी भी धनके रागसे नहीं बच पाते। फिर जो मढ बद्धि हैं लोक-व्यवहारमें अपनेको दक्ष मानकर सबको यह उपदेश देते हैं कि अन्नके बिना प्राण नहीं रह सकते और धनके बिना अन्न नहीं मिलता, वे तो धन कमानेमें ही लगे रहते हैं और पुण्य-पापका विचार नहीं करते । धन कमाकर पौष्टिक भोजन स्वयं भी करते हैं और संसार-त्यागियोंको भी कराते हैं। पौष्टिक भोजन और विकार न करे यह कैसे सम्भव है। विकार होनेपर स्त्री सेवन करते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि धन और स्त्रीका राग मन रहित वृक्षोंको भी नहीं छोड़ता फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या है । नीतिवाक्यामृतमें कहा है-'अर्थेषूपभोगरहितास्तरवोऽपि साभिलाषाः किं पुनर्मनुष्याः ।' धनका उपभोग न कर सकनेवाले वृक्ष भी धनकी इच्छा करते हैं फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या है। यदि भूमिमें धन गड़ा हो तो वृक्षकी जड़ें उस ओर ही जाती हैं। स्त्रियोंके पैर मारने आदिसे वृक्ष खिल उठते हैं ऐसी प्रसिद्धि है । अतः धनके रागसे बचना चाहिये ॥१३३॥ आगे कहते हैं कि गृह आदिमें ममत्व भावरूप मूर्छाके निमित्तसे आगत और उनके रक्षण आदिसे संचित पापकर्मकी निर्जरा बड़ी कठिनतासे होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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