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________________ ३१२ धर्मामृत ( अनगार) मनुस्त्विदमाह 'पतिर्भायर्या संप्रविश्य गर्भो भूत्वेह जायते । जायायास्तद्धि जायत्वं यदस्यां जायते पुनः ॥' [ मनुस्मृति ९८ ] पशुभिः-गृहव्यवहारमूढः । युज्यते-अभेदेन दृश्यते ॥११४॥ अथ पुत्रे सांसिद्धिकोपाधिकभ्रान्त्यपसारणेन परमार्थवर्मनि शिवार्थिनः स्थापयितुमाह यो वामस्य विधेः प्रतिष्कशतयाऽऽस्कन्दन् पितञ्जीवतो ऽप्युन्मथ्नाति स तर्पयिष्यति मृतान् पिण्डप्रदाद्यैः किल । इत्येषा जनुषान्धतार्य सहजाहार्याथ हार्या त्वया, स्फार्यात्मैव ममात्मजः सुविधिनोद्धर्ता सदेत्येव दृक् ॥११५॥ वामस्य विधेः-बाधकस्य देवस्य शास्त्रविरुद्धस्याचारस्य वा। प्रतिष्कशतया-सहकारिभावेन । आस्कन्दन्-दुष्कृतोदीरणतीव्रमोहोत्पादनद्वारेण कदर्थयन् । पुत्रो ह्यविनीतो दुःखदानोन्मखस्य दुष्कृतस्यो१२ दीरणाया निमित्तं स्यात । विनीतोऽपि स्वविषयमोहग्रहावेशनेन परलोकविरुद्धाचरणविधानस्य । उन्मथ्नाति उपकारको भूलकर उन्हें सताने लगा तो रात-दिन हृदयमें काँटेकी तरह करकता रहता है।' और भी कहा है-'अजात ( पैदा नहीं हुआ), मर गया और मूर्ख इन तीनोंमें-से मृत और अजात पुत्र श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे तो थोड़ा ही दुःख देते हैं किन्तु मूर्ख पुत्र जीवन-भर दुःख देता है।' ___ इस तरह पुत्र दुःखदायक ही होता है फिर भी मोही. माता-पिता उसे अपना ही प्रतिरूप मानते हैं। कहते हैं, मेरी ही आत्माने पुत्र नामसे जन्म लिया है। मनु महाराजने कहा है-'पति भार्या में सम्यक् रूपसे प्रवेश करके गर्भरूप होकर इस लोकमें जन्म लेता है । स्त्रीको जाया कहते हैं । जायाका यही जायापना है कि उसमें वह पुनः जन्म लेता है' ॥११४।। आगे इस प्रकार पुत्रके विषयमें स्वाभाविक और औपाधिक भ्रान्तियोंको दूर करके मुमुक्षुओंको मोक्षमार्गमें स्थापित करते हैं जो पुत्र प्रतिकूल विधि अथवा शास्त्र विरुद्ध आचारका सहायक होता हुआ पापकर्मकी उदीरणा या तीव्र मोहको उत्पन्न करके जीवित पिता-दादा आदिके भी प्राणोंका घात करता है, उनकी अन्तरात्माको कष्ट पहुंचाता है या उन्हें अत्यन्त मोही बनाकर धर्मकर्म में लगने नहीं देता, वह पुत्र मरे हुए पितरोंको पिण्डदान करके तर्पण करेगा, यह स्वाभाविक या परोपदेशसे उत्पन्न हुई जन्मान्धताको हे आर्य ! तू छोड़ दे। और सम्यविहित आचारके द्वारा संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला मेरा आत्मा ही मेरा आत्मज है-पुत्र है इस प्रकारकी दृष्टिको सदा उज्ज्वल बना ॥११५॥ विशेषार्थ-पुत्र यदि अविनीत होता है तो पापकर्मकी उदीरणामें निमित्त होता है क्योंकि पापकर्मके उदयसे ही इस प्रकारका पुत्र उत्पन्न होता है जो माता-पिताकी अवज्ञा करके उन्हें कष्ट देता है । और यदि पुत्र विनयी, आज्ञाकारी होता है तो उसके मोहमें पड़कर माता-पिता धर्म कर्मको भी भुला बैठते हैं। इस तरह दोनों ही प्रकारके पुत्र अपने पूर्वजोंके प्राणोंको कष्ट पहुँचाते हैं। फिर भी हिन्दू धर्ममें कहा है कि जिसके पुत्र नहीं होता उसकी गति नहीं होती। वह प्रेतयोनिमें ही पड़ा रहता है। प्रेतयोनिसे तभी निकास होता है जब पुत्र पिण्डदान करता है। उसीको लक्ष्यमें रखकर ग्रन्थकार कहते हैं कि जो पुत्र जीवित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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