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________________ चतुर्थ अध्याय ३११ अथ पुत्रमोहान्धान् दूषयन्नाह यः पत्नी गर्भभावात् प्रभृति विगुणयन् न्यक्करोति त्रिवर्ग, प्रायो वस्तुः प्रतापं तरुणिमनि हिनस्त्याददानो धनं यः । मूर्खः पापो विपद्वानुपकृतिकृपणो वा भवन् यश्च शल्य ___ त्यात्मा वै पुत्रनामास्ययमिति पशुभियुज्यते स्वेन सोऽपि ॥११४॥ विगुणयन्-सौष्ठव-सौन्दर्यादिगुणरहितां विकूलां वा कुर्वन् । न्यक्करोति-हासयति । यद्वृद्धाः- ६ 'जाओ हरइ कलत्तं वड्ढंतो वढिमा हरइ। अत्थं हरइ समत्थो पुत्तसमो वैरिओ पत्थि ॥' [ । यल्लोकः'अजातमृतमूर्खेभ्यो मृताजातौ सुतौ वरम् । यतस्तो स्वल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो भवेत् ॥ [ ] पाप:-ब्रह्महत्या-परदारागमनादिपातकयुक्तः । विपद्वान-व्याधिवन्दिग्रहादि-विपत्तिपतितः । १२ उपकृतिकृपण:-असामर्थ्यादविवेकाद्वा अनुपकारकः । आत्मेत्यादि । यज्जातकर्मणि पठन्ति 'अङ्गादङ्गात्प्रभवसि हृदयादपि जायसे। आत्मा वै पुत्रनामासि संजीव शरदः शतम् ॥ [ ] वह मेरी पत्नीसे फंस न जाये । और ऐसी शंका उचित भी है, क्योंकि पुरुषकी तो बात ही क्या, पशुका संसर्ग भी स्त्रीको बिगाड़ता है। प्रभंजन चरितमें एक रानीकी कथा वर्णित है जो बन्दरपर आसक्त थी। जो स्त्रियाँ कुत्ते पालती हैं उनके सम्बन्धमें भी ऐसा ही सुना जाता है। फिर अपनी स्त्रीके शीलभंगकी बात भी कोई कह दे तो बड़ा कष्ट होता है। स्त्रीके मोहवश ही मनुष्य साधु-सन्तोंके समागमसे डरता है। कभी सांसारिक कष्टोंसे घबराकर घर छोड़नेका विचार भी करता है किन्तु स्त्रीसे बँधकर घरमें ही वृद्ध होकर कालके गालमें चला जाता है। अतः मुमुक्षुओंको विवाह ही नहीं करना चाहिए यह उक्त कथनका सार है ॥११३।। इस प्रकार स्त्रीके रागमें अन्धे हुए मनुष्योंकी बुराई बतलाकर अब पुत्रके मोहसे अन्धे हुए मनुष्योंकी बुराई बतलाते हैं जो गर्भभावसे लेकर पत्नीके स्वास्थ्य-सौन्दर्य आदि गुणोंको हरकर मनुष्यके धर्म, अर्थ और काममें कमी पैदा करता है, युवावस्था में पिताके धनपर कब्जा करके प्रायः उसके प्रतापको नष्ट करता है, यदि वह मूर्ख या पापी हुआ अथवा किसी विपत्तिमें पड़ गया, या असमर्थ अथवा अविवेकी होनेसे माता-पिताके उपकारको मुला बैठा तो शरीर में घुसी हुई कीलकी तरह कष्ट देता है। ऐसा भी पुत्र घरेलू व्यवहारमें विमूढ़ गृहस्थोंके द्वारा यह मेरा पुत्र नामधारी आत्मा है, इस प्रकार अपनेसे अभिन्न माना जाता है ॥११४।। विशेषार्थ-माता-पिताके रज और वीयको आत्मसात् करनेवाले जीवको गर्भ कहते हैं और उसके भावको अर्थात् स्वरूपस्वीकारको गर्भभाव कहते हैं। पुत्रोत्पत्तिसे स्त्रीके स्वास्थ्य और सौन्दर्यमें कमी आ जाती है । साथ ही, स्त्री फिर पुत्रके मोहवश पतिसे उतनी प्रीति भी नहीं करती। फलतः पुरुषके भोगमें विघ्न पड़ने लगता है । युवा होनेपर पुत्र धनका मालिक बन बैठता है। कहा भी है-'उत्पन्न होते ही स्त्रीका, बड़ा होनेपर बड़प्पनका और समर्थ होनेपर धनका हरण करता है। अतः पुत्रके समान कोई वैरी नहीं है। यदि पुत्र पढ़ा-लिखा नहीं या चोर, व्यभिचारी हुआ और जेलखानेमें बन्द हो गया या माता-पिताके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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