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________________ २९७ चतुर्थ अध्याय अथ तारुण्येऽप्यविकारिणं प्रशंसयति दुर्गेऽपि यौवनवने विहरन् विवेकचिन्तामणि स्फुटमहत्त्वमवाप्य धन्यः। चिन्तानुरूपगुणसंपदुरुप्रभावो वृद्धो भवत्यपलितोऽपि जगद्विनीत्या ॥९९।। जगद्विनीत्या-लोकानां शिक्षासंपादनेन ॥१९॥ अथासाधुसाधुकथाफलं लक्ष्यद्वारेण स्फुटयति सुशीलोऽपि कुशीलः स्यादुर्गोष्ठया चारुदत्तवत् । कुशोलोऽपि सुशीलः स्यात् सद्गोष्ठया मारिदत्तवत् ॥१०॥ स्पष्टम् ॥१०॥ जो युवावस्थामें भी निर्विकार रहते हैं उनकी प्रशंसा करते हैं यौवनरूपी दुर्गम वनमें विहार करते हुए अर्थात् युवावस्थामें महिमाको प्रकट करनेवाले विवेकरूपी चिन्तामणिको प्राप्त करके चिन्ताके अनुरूप गुणसम्पदासे महान् प्रभावशाली धन्य पुरुष लोगोंको शिक्षा प्रदान करनेके कारण केशोंके श्वेत न होनेपर भी वृद्ध जैसा होता है अर्थात् जो युवावस्थामें संयम धारण करके लोगोंको सत् शिक्षा देता है वह वृद्धावस्थाके बिना भी वृद्ध है ॥१९॥ असाधु और साधु पुरुषों के साथ संभाषणादि करनेका फल दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं दुष्टजनोंकी संगतिसे चारुदत्त सेठकी तरह सुशील भी दुराचारी हो जाता है। और सज्जनोंकी संगतिसे मारिदत्त राजाकी तरह दुराचारी भी सदाचारी हो जाता है ॥१०॥ विशेषार्थ-जैन कथानकोंमें चारुदत्त और यशोधरकी कथाएँ अतिप्रसिद्ध हैं। चारुदत्त प्रारम्भमें बड़ा धर्मात्मा था। अपनी पत्नीके पास भी न जाता था। फलतः उसे विषयासक्त बनानेके लिए वेश्याकी संगतिमें रखा गया तो वह इतना विषयासक्त हो गया कि बारह वर्षों में सोलह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ लुटा बैठा । जब पासमें कुछ भी न रहा तो वेश्याकी अभिभाविकाने एक दिन रात्रिमें उसे सोता हुआ ही उठवाकर नगरके चौराहे पर फिंकवा दिया। इस तरह कुसंगमें पड़कर धर्मात्मा चारुदत्त कदाचारी बन गया। इसी तरह मारिदत्त राजा अपनी कुलदेवी चण्डमारीको बलि दिया करता था। एक बार उसने सब प्रकारके जीवजन्तुओंके युगलकी बलि देवीको देनेका विचार किया। उसके सेवक एक मनुष्य युगलकी खोजमें थे। एक तरुण सुरूप क्षुल्लक और क्षल्लिका भोजनके लिए नगरमें आये। राजाके आदमी उन दोनोंको पकड़कर ले गये । राजाने उन्हें देखकर पूछा-तुम दोनों कौन हो और इस कुमारवयमें दीक्षा लेनेका कारण क्या है ? तब उन्होंने अपने पूर्वजन्मोंका वृत्तान्त सुनाया कि किस तरह एक आटेके बने मुर्गका बलिदान करनेसे उन्हें कितना कष्ट भोगना पड़ा । उसे सुनकर राजा मारिदत्तने जीवबलिका विचार छोड़ दिया और जिनदीक्षा धारण कर ली। यह सत्संगतिका फल है ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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