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________________ ३ धर्मामृत (अनगार ) कालुष्यं - द्वेषशोकभयादिसंक्लेशः पङ्काविलत्वं च । सरटवत् — करकेटुको यथा । एति शान्तिशाम्यति । राग उदीर्णोऽपि इत्युपसृत्य योज्यम् ॥९७॥ २९६ अथ प्रायो यौवनस्यावश्यं विकारकारित्वप्रसिद्धेर्गुणातिशयशालिनोऽपि तरुणस्याश्रयणमविश्वास्यतया प्रकाशयन्नाह - अप्युद्यद्गुणरत्न राशिरुगपि स्वच्छः कुलीनोऽपि ना, नव्येनाम्बुधिरिन्दुनेव वयसा संक्षोभ्यमाणः शनैः । आशाचक्रविवर्तिगजितजला भोगः प्रवृत्त्यापगाः, पुण्यात्माः प्रतिलोमयन् विधुरयत्यात्माश्रयान् प्रायशः ॥९८॥ रुक् - दीप्ति: । संक्षोभ्यमाणः - प्रकृतेश्चात्यमानः । यल्लोकः - 'अवश्यं यौवनस्थेन क्लीबेनापि हि जन्तुना । विकारः खलु कर्तव्यो नाविकाराय यौवनम् ॥' [ ] १२ जलाभोगः–मूढलोकोपभोगो वारिविस्तारश्च । पुण्यात्माः - पवित्रस्वभावाः । अश्व डात् । प्रतिलोमयन् - प्रावर्तयन् प्रावारिणीः कुर्वन्नित्यर्थः । विधुरयति - श्रेयसो भ्रंशयति आत्माश्रयान् शिष्यादीन्मत्स्यादींश्च ॥९८॥ भय आदि रूप संक्लेश ज्ञान और संयमसे वृद्ध पुरुषोंकी संगतिसे शान्त हो जाता है । तथा जैसे जल में निर्मलीके चूर्णसे शान्त हुई कीचड़की कालिमा पत्थर फेंकनेसे तत्काल उद्भूत हो जाती है वैसे ही जीवमें वृद्धजनोंकी संगतिसे शान्त हुआ भी संक्लेश दुराचारी पुरुषोंकी संगतिसे पुनः उत्पन्न हो जाता है । जैसे मिट्टी में छिपी हुई गन्ध जलका योग पाकर प्रकट होती है उसी तरह युवाजनोंकी संगतिसे जीवका अप्रकट भी राग प्रकट हो जाता है । तथा जैसे पत्थर के फेंकने से गिरगिटका राग - बदलता हुआ रंग शान्त हो जाता है वैसे ही वृद्धोंकी संगति से उद्भूत हुआ राग शान्त हो जाता है । अतः ब्रह्मचर्य व्रतके पालकोंको दुराचारी जनोंकी संगति छोड़कर ज्ञानवृद्ध और संयमवृद्धोंकी संगति करनी चाहिए ||१७|| यह बात प्रसिद्ध है कि प्रायः यौवन अवस्थामें विकार अवश्य होता है । अत: अतिशय गुणशाली तरुणकी संगति भी सर्वथा विश्वसनीय नहीं है, यह बात कहते हैं Jain Education International जैसे रत्नोंकी राशि की चमकसे प्रदीप्त स्वच्छ और प्रशान्त भी समुद्र चन्द्रमाके द्वारा धीरे-धीरे क्षुब्ध होकर अपने गर्जनयुक्त जलके विस्तारसे दिशा मण्डलको चंचल कर देता है, पवित्र गंगा आदि नदियोंको उन्मार्गगामिनी बना देता है और समुद्र में बसनेवाले मगरमच्छों को भी प्रायः कष्ट देता है उसी प्रकार प्रतिक्षण बढ़ते हुए गुणोंके समूहसे प्रदीप्त स्वच्छ कुलीन भी मनुष्य यौवन अवस्थामें धीरे-धीरे चंचल होता हुआ आशापाशमें फँसे हुए और डींग मारनेवाले मूढ़ लोगोंके इष्ट विषयोपभोगका साधन बनकर अर्थात् कुसंगमें पड़कर अपनी मन-वचन-कायकी पुण्य प्रवृत्तियोंको कुमार्ग में ले जाता है और अपने आश्रितोंको भी कल्याणसे भ्रष्ट कर देता है ॥९८॥ १. व्यावर्तयन् उत्पथे चारिणीः कुर्वन्नित्यर्थः - भ. कु. च । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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