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________________ चतुर्थ अध्याय २९३ पिबन्नोष्ठं गच्छन्नपि रमणमित्यातवपथं, भगं धिक् कामान्धः स्वमनु मनुते स्वःपतिमपि ॥१२॥ अमिसरन्-आलिङ्गन् । अङ्ग्रेत्यादि-अङ्गं व्रणमिवाशुचिरूपत्वात् तस्य मुखं द्वारं यन्मुखं वक्त्रं ३ तस्य क्लेदेन क्वाथेन कलुषं कश्मलम् । गच्छन्-उपभुञ्जानः। आर्तवपथं-रजोवाहियोनिरन्ध्रम् । स्वमनु-आत्मनः सकाशाद्धीनम् ॥९२॥ अथ स्त्रीशरीरेऽनुरज्यन्त्यां दृष्टौ सद्यस्तत्स्वरूपपरिज्ञानोन्मेष एव मोहोच्छेदाय स्यादित्यावेदयति- ६ रेतःशोणितसंभवे बृहदणुस्रोतःप्रणालीगल दग)दगारमलोपलक्षितनिजान्तर्भागभाग्योदये। तन्वङ्गीवपुषीन्द्रजालवदलं भ्रान्तौ सजन्त्यां दृशि, द्रागुन्मोलति तत्त्वदृग् यदि गले मोहस्य दत्तं पदम् ॥१३॥ बृहन्ति-नासागुदादिरन्ध्रागि, अणूनि-रोमकूपविवराणि । गर्होद्गाराः-जुगुप्सोद्भावकाः।। मला:-श्लेष्मविण्मूत्रप्रस्वेदादयः । भाग्योदयः-विपरीतलक्षणया पुण्यविपाकः । अलंभ्रान्ती-भ्रान्तये १२ विभ्रमायालं समर्थम् । 'तिकुप्रादयः' इति समासः ॥९३॥ अथ स्त्रीशरीरस्याहारवस्त्रानुलेपनादिप्रयोगेणैव चारुत्वं स्यादिति प्रौढोक्त्यां व्यञ्जयति वर्चःपाकचरुं जुगुप्स्यवसति प्रस्वेदधारागृहं, बीभत्सैकविभावभावनिवर्हनिर्माय नारीवपुः। वेधा वेनि सरीसृजीति तदुपस्कारैकसारं जगत् को वा क्लेशमवैति शर्मणि रतः संप्रत्ययप्रत्यये ॥९४॥ कामसे अन्धा हुआ मनुष्य मांसकी प्रन्थिरूप स्त्रीके स्तनोंको सोनेके कलश मानकर उनका आलिंगन करता है । जो मुख शरीरके घावके बहनेका द्वार जैसा है उसके कफ आदिसे दूषित हुए स्त्रीके ओष्ठको अमृतका प्रवाही मानकर पीता है, रजको बहानेवाले स्त्रीके योनि छिद्रमें रमण मानकर सम्भोग करता है। और ऐसा करते समय इन्द्रको भी अपनेसे हीन मानता है। उसकी यह कल्पना धिक्कारके योग्य है ॥१२॥ जिस समय दृष्टि स्त्रीके शरीरमें अनुरक्त हो, तत्काल ही उसके स्वरूपके परिज्ञानकी झलक ही मोहको दूर कर सकने में समर्थ है ऐसा कहते हैं स्त्रीका शरीर रज और वीर्यसे उत्पन्न होता है। उसमें नाक, गुदा आदि बड़े छिद्र हैं और रोमावलीके छोटे छिद्र हैं। ये वे नालियाँ हैं जिनसे ग्लानि उत्पन्न करनेवाले शब्दके साथ मल-मूत्रादि बहते रहते हैं। उनसे उनके शरीरके अन्तर्भागमें कितना पुण्यका उदय है यह अनुभवमें आ जाता है । फिर भी इन्द्रजाल (जादूगरी) की तरह वह शरीर मनुष्योंको भ्रममें डालने में समर्थ है अर्थात् ऐसे शरीरके होते हुए भी मनुष्य उसके मोहमें पड़ जाते हैं। अतः उसमें दृष्टि आसक्त होते ही यदि तत्काल तत्त्वदृष्टि खुल जाती है तो समझना चाहिए कि मोहकी गर्दनपर पर रख दिया गया अर्थात् साधुने मोहका तिरस्कार कर दिया ॥१३॥ स्त्रीका शरीर सुस्वादु पौष्टिक आहार और वस्त्र आदिके व्यवहारसे ही सुन्दर प्रतीत होता है यह बात प्रौढ़ पुरुषोंकी उक्तिसे प्रकट करते हैं नारीका शरीर मलको पकानेके लिए एक पात्र है, घृणा पैदा करनेवाले मलमूत्र आदिका घर है, पसीनेका फुवारा है। मुझे ऐसा लगता है कि एक मात्र बीभत्स रसके आलम्बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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