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________________ २९२ धर्मामृत ( अनगार) अथैवं स्त्रीसंसर्गदोषान् व्याख्यायेदानीं पञ्चभिवृत्तस्तदशुचित्वं प्रपञ्चयिष्यन् सामान्यतस्तावत्केशपाशवक्त्राकृतीनामाहार्यरामणीयकसद्योविपर्याससंपादकत्वं ममक्षणां निर्वेदनिदानत्वेन मुक्त्युद्योगानुगुणं स्यादित्या३ सूत्रयति गोगमुद्वयजनैकवंशिकमुपस्कारोज्ज्वलं कैशिकं, पादूकृद्गृहगन्धिमास्यमसकृत्ताम्बूलवासोत्कटम् । मूतिश्चाजिनकृतिप्रतिकृति संस्काररम्या क्षणाद्, व्यांजिष्यन्न नणां यदि स्वममृते कस्तहर्युदस्थास्यत ॥११॥ गवित्यादि-गवामनड्वाहीनां गर्मुतो मक्षिकास्तासां व्यजनं विक्षेपणं तालवन्तम् । तस्यैकवंशिकं सगोत्रं जगप्सास्पदत्वात् । स्वमात्मानं यदि न व्यांजिष्यदिति गत्वा संबन्धः कर्तव्यः । एकः समानो वंशोऽन्वयोऽस्यास्तीति विगृह्य 'एकगोपूर्तावञ्निमिति ठन्' । उपस्कारोज्ज्वलं-उपस्कारेण अभ्यङ्गस्नानधूपनादिप्रति यत्नेन । उज्ज्वलं-दीप्तम् । कैशिकविशेषणमिदम् । कैशिकं-केशसमूहः । पादूकृद्गृहगन्धि-पादूकृत१२ श्चर्मकारस्य गृहस्येव गन्धोऽस्येति । पूर्ववत् 'स्वम्' इत्यस्य विशेषणम् । अजिनेत्यादि-अजिनकृतश्चर्मकारस्य दृतिः रज्यमाना खल्वा तत्प्रतिमम् । इदमपि स्वमित्यस्यैव विशेषणम् । व्यांजिष्यत्-प्रकटमकरिष्यत् । स्वं-आत्मानम् । उदस्थास्यत-उद्यममकरिष्यत ॥९॥ अथ कामान्धस्य स्वोत्कर्षसंभावनं धिक्कूर्वन्नाह'कुचौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्यभिसरन् सुधास्यन्दीत्यङ्गवणमुखमुखक्लेदकलुषम् । __ इस प्रकार स्त्रीसंगके दोषोंको कहकर अब पाँच पद्योंसे उनकी अशुचिताको कहना चाहते हैं। पहले सामान्यसे स्त्रियोंके केशपाश, मुख और शरीरको ऊपरी उपायोंसे सुन्दर किन्तु शीघ्र ही बदसूरत बतलाते हैं जिससे मुमुक्षु उनसे विरक्त होकर मुक्तिके उद्योगमें लग स्त्रियों और पुरुषोंका केशसमूह गाय और बैलोंकी मक्खियाँ भगानेवाली पूँछके बालोंके ही वंशका है, दोनोंका एक ही कुल है। किन्तु तेल, साबुन-स्नान आदिसे उन्हें चमकाकर स्त्री पुरुषोंके सामने और पुरुष स्त्रियोंके सामने उपस्थित होते हैं। मुख चर्मकारके घरकी तरह दुर्गन्धयुक्त है। किन्तु उसे बार-बार ताम्बूलकी सुवाससे वासित करके स्त्री और पुरुष परस्परमें एक दूसरेके सामने उपस्थित होते हैं। शरीर चर्मकारकी रँगी हुई मशकके समान है। किन्तु उसे भी स्नान, सुगन्ध आदिसे सुन्दर बनाकर स्त्री और पुरुष परस्परमें एक दूसरेके सामने उपस्थित होते हैं। किन्तु यह बनावट क्षण-भरमें ही विलीन हो जाती है और केशपाश, मुख और शरीर अपनी स्वाभाविक दशामें प्रकट हो जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो मोक्षके विषय में कौन उद्यम करता अर्थात् मोक्षमार्गमें कोई भी न लगता ॥९॥ कामान्ध पुरुषके अपनेको महान् समझनेकी भावनाका तिरस्कार करते हैं१. 'स्तनौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्युपमिती । मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम् ॥ स्रवन्मूत्रक्लिनं करिवरशिरःस्पधि जघनं महनिन्द्यं रूपं कविजनविशेषगुरु कृतम् ॥'-वैराग्यश. १६ श्लो.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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